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१०१२ अयोदय-महाकाव्यम्
[ १३-१४ पद्मिनी शरदि सोऽन्वभूद्वशी संकुचद्विगुणकुड्मलां निशि । सुप्रसन्नमुखवारिजां जयः सौरभावगतवृत्तिमप्ययम् ॥१३॥
पनिनोमित्यादि-स जयो नाम नरपतिरयं प्रसङ्गप्राप्तः शरवि वर्षानन्तरकाले वशी स्वाधीनः सन् प्रसन्न मुखमेव वारिजं कमलं यस्यास्तां निशि रात्री संकुची प्रशस्तस्तनावेव द्विगुणे विसंख्याके कुड्मले यस्यास्तथा संकुचती अत एव विगुणे अल्पगुणे कुड्मले यस्यास्तां पपिनों गुणशालिनों स्त्रियं वारिजलतामिव सुरभेर्भावोऽसौ सौरमं सौगन्ध्यं तेनावगता वृत्तिर्यस्यास्तामिति सरोजिनीपक्षे, स्त्रीपक्षे सुराणामसौ सौरः स चासो भावस्तत्र गता वृत्तिर्यस्याः, स्वर्गीयचेष्टावतीमिति तामन्वभूत् भुक्तवान् ॥१३॥
उच्चस्तनमोदकायसिद्धा निःस्वेदया रुचा जगतीखा । हेमन्तश्रीरिवाभिरामा महीपतेः सा बभूव रामा ॥१४॥
उच्चरित्यादि-सा महीपतेर्जयकुमारस्य रामा सुलोचना, सा हेमन्तीधीरिव शीतकालशोभासदृशी अभिरामा रमणीया बभूव । या किल स्त्री सोच्चरत्त ङ्गयोश्चूचुकयोरेव मोदकयोलड्डुकयोरयेन शुभविधिना सिद्धा प्रसिद्धा, शीतपक्षे उच्चस्तनानां मोदकानामायेन प्राप्त्या सिद्धा। निःस्वे धनरहिते जने दया यस्यास्तथा 'रुचा कान्तिश्च
अर्थ-उस स्वाधीन राजा जयकुमारने शरद् ऋतुमें रात्रिके समय पद्मिनी-श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त (पद्मिनी नामक नायिका-भेदसे सहित ) उस सुलोचनाका उपभोग किया था, जो संकुचद्विगुणकुड्मला-दो कुड्मलोंके समान प्रशस्त स्तनोंसे सहित थी, प्रसन्नमुखवारिजा-कमलके समान प्रसन्न मुख वाली थी तथा सौरभावगतवृत्ति-देवभावसे युक्त चेष्टा वाली थी।
अर्थान्तर-राजा जयकुमारने शरद् ऋतुमें उस पद्मिनी-कमललताका सेवन किया था, जिसमें रात्रिके समय निमीलित दशाको प्राप्त दो गुणहीन कूड्मल लगे हुए थे, जिसका कमल किसी नायिकाके मुखके समान खिला हा था और जिसका अस्तित्व सौरभ-सुगन्धसे माना जाता था ॥१३।।
अर्थ-वह सुलोचना राजा जयकुमारके लिये हेमन्त ऋतुको शोभाके समान प्रिय थी, क्योंकि जिस प्रकार हेमन्त ऋतुकी शोभा उच्चस्तनमोदकाय सिद्धाउच्चकोटिके गरिष्ठ लड्डुओंकी प्राप्तिसे प्रसिद्ध है, उसी प्रकार सुलोचना भी उच्चस्तनामोदकाय सिद्धा-लड्डुओंके समान उन्नत स्तनोंके अय-शुभावह विधिसे प्रसिद्ध थी। जिस प्रकार हेमन्त ऋतुकी शोभा निस्वेदया रचा जगति इद्धा
१. 'आपं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा' इत्युक्ते रुच्शब्दादाप्प्रत्ययः ।
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