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________________ १५-११] द्वाविंशः सर्गः जगतीद्धा सर्वोत्कृष्टा, शीतश्रीपक्षे पुनर्न वर्तते स्वेदो यत्र सा निस्वेदा तया रुचा शोभया जगतीखा। एवं हेमन्तश्रीरिव सा ॥१४॥ उच्चस्तनसानुनानुमातुं मरुतां विस्मयकरी प्रिया तु। किमस्तु माघस्याप्यवसानं यदि तस्य विपत्रताभिमानम् ॥१५॥ उचैस्तनसानुनेत्यादि-या प्रिया युवतिरुच्चस्तनेन समुन्नतकुचरूपेण सानुना पर्वतेन, यद्वोच्चस्तनेन तेन सानुना कृत्वानुमातु ज्ञातु मरुतां देवानामपि यद्वा वायूनां विस्मयकरी यस्य जयस्य तस्य विपत्रताया आपद्रहिततायाः पत्रशून्यतायाश्चाभिमानं तदा तत्राघस्य पापस्यावसानं नाशोऽपि मास्तु किम् ? किन्तु सोऽस्त्येव पुण्यवान् यद्वा तस्य माघस्यावसानमपि किमस्तु नैवास्तु तादृशस्य माघस्याभाव इति । वक्रोक्तिः श्लेषो रूपकं चालंकारोऽत्र ॥१५॥ प्राप कौतुकातिशयधरं स चित्राख्यातभासि धृतशंसः । अनुमदनविकासं विलसन्तं दारसारमवनौ च वसन्तम् ॥१६॥ प्रापेत्यादि-चित्रो विचित्र इति ख्यातो यो भाः किरणस्तस्मिन् धृता शंसा प्रशंसा येन स चित्राख्यातभासि धृतशंसोऽतिशयशोभावानिति यावत् । यद्वा चित्रया ख्याते भासि चत्रे धूताशंसा येनेति वा स । कौतुकस्य प्रमोदस्यातिशयं यद्वा कौतुकानां कुसुमानामतिशयं परति पसीनारहित कान्ति से जगत्में सुशोभित है, उसी प्रकार निःस्वे दया रचा जगति इद्धा-निर्धन मनुष्य पर सुलोचनाकी दया और अपनी कान्ति जगत्में सुशोभित थी ॥१४॥ ___अर्थ-जिस जयकुमारकी प्रिया-सुलोचना उच्चस्तनसानुना-उन्नत स्तनरूप पर्वतके द्वारा अनुमान करनेके लिये देवों अथवा वायुको विस्मय करनेवाली है, उस जयकुमारके उस अघ-पापका अवसान-अभाव क्या न हो ? जिससे विपत्रताआपत्तिरहितताका अभिमान होता है, अर्थात् अवश्य हो-वे पुण्यवान् ही रहें, अघवान् नहीं। अथवा उस माघके महीनेका क्या अवसान अभाव हो, जिसे विपत्रता-पत्ररहितताका अभिमान है ? अर्थात् नहीं, क्योंकि प्रकृतिके क्रमका कभी नाश नहीं होता ॥१५॥ ___ अर्थ-चित्रविचित्ररूपसे प्रसिद्ध किरणोंके विषयमें प्रशंसाको धारण करने वाले, अर्थात् अतिशय शोभाशाली जयकुमारने उस वाररत्न-स्त्रीरत्नको प्राप्त किया, जो पृथिवीपर निवास करनेवाले वसन्तके समान था, क्योंकि जिस प्रकार वसन्त कौतुकातिशयधर-पुष्पोंके अतिशय-आधिक्यको धारण करनेवाला होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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