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________________ १२] द्वाविंशः सर्गः १०११ प्रणीतिर्यस्यां तस्याम्, समुल्लसंश्चासौ रसस्य जलस्य नादो ध्वनिस्तस्मिन् रता, तस्या निमज्ज्येत्यावि पूर्ववत् । किञ्च, या विलग्ननामकस्य केवलिनः प्रणीतिः, तस्यां सज्जनेभ्योऽभितः समन्तान्नम सुखं बवाति तस्यां सज्जनाभिनर्मवायां समुल्लसति रसी यत्र तस्मिन्नावे ध्वनी रता, तस्यां निमज्ज्य का पुनरघस्य भीतिहानिवास्तु न कापि । वक्रोक्तिः श्लेषालङ्कारश्च ॥११॥ स जयो महोदयोऽप्यपश्रमं प्रावृषि नाभिवरीमरीरमत् । मवनभुवो भववनेऽपि लब्ध्वा पृथुनितम्बभाजो नववध्वाः ॥१२॥ स जय इत्यादि-महानुवयः सम्पद्भायो यस्य स जयो नववध्वाः सुलोचनाया। कोवृश्याः ? अस्मिन् भववने संसारकान्तारे मदनस्य कामस्य भुवः स्थानभूतायाः पृथ विस्तृतं नितम्वं कटिपश्चाद्धार्ग तथा पर्वतं भजत इति तस्या नाभिमेव दरों गुहा लब्ध्या प्रावृषि वर्षायामपि अपश्रममनायासं यथा स्यात्तथारीरमत्। यथा वनस्थस्यापि पर्वतगुहामासाद्य वर्षाक्लेशो न भवति, तथा जयस्यापि सुलोचनाया नाभिस्थानं गच्छतः । श्लेषो रूपकं चालङ्कारः॥१२॥ सुलोचनामें अवगाहन कर निदाघकाल-ग्रीष्मऋतुका क्या भय रह जाता है ? अर्थात् कुछ नहीं। अथवा विलग्नके वलिप्रणीति-जिसके मध्य भाग रूपी जलमें वलियोंकी रचना है, तरङ्ग उठ रही हैं और जो समुद्रसत्-समुल्लसत्, रसनादरताशोभायमान जलकी कलकल ध्वनिसे सहित है, उस सुलोचनामें अवगाहन कर ग्रीष्म ऋतुका कौन सा भय रह जाता है ? अर्थात् कोई भी नहीं। अथवा जो सज्जनाभिनर्मदायां-सज्जनोंको सब ओरसे सुख देने वाली, विलग्न केवलीकी खिरती हुई दिव्य ध्वनिमें रत-लोन रहतो है, ऐसी सुलोचनामें अवगाहन करउसका संपर्क प्राप्त कर हानि देने वाले भयका कौनसा भय रह जाता है ? अर्थात् कोई भी नहीं ॥११॥ अर्थ-महान् अभ्युदयसे सहित राजा जयकुमार संसाररूपी वनमें कामके स्थानभूत विस्तृत नितम्ब वाली नववधू-सुलोचनाकी नाभिरूपी गुहाको प्राप्त कर वर्षा ऋतुके समय अनायास ही रमण करते थे। भावार्थ-जिस प्रकार वनमें रहने वाला कोई पुरुष वर्षा ऋतुमें किसी पर्वतकी गुहाको पाकर क्लेशके बिना ही क्रोड़ा करता है, समय व्यतीत करता है, उसी प्रकार जयकुमार भी पर्वततुल्य नितम्ब वाली सुलोचनाकी नाभिरूप गुहाको पाकर किसी क्लेशके बिना ही समययापन करते थे ।।१२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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