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________________ १०१० जयोदय-महाकाव्यम् [१०-११ नवश्चासौ प्रवालः सद्योजातशिशुस्तस्मै अनुबभूव । यथा शिशिरस्य धियं शिशिरविपि अपनपता पत्ररहितता नवस्य प्रवालस्य किसलयस्योपादानाय भवति ॥९॥ पुनरपि षड् ऋतुत्वमेव कथयति क्रमेणकौमारं खलु लङ्घितवत्या नखाच्छिखान्तं जयः सुवत्याः । आलम्बितो हितोक्तसमाधावथ का कुसुमशरस्य च बाधा ॥१०॥ कौमारमित्यादि-जयो नाम नपो नखाच्छिखान्तं नखतः समारभ्य शिखापर्यन्तं कौमारं बालत्वं लयितवत्या अतिक्रामन्त्याः, यद्वा को पृथिव्यां मार स्मरं लङ्घितवत्याः सुवत्याः सुलोचनाया हितोक्तसमाधौ आलम्बितो विलग्नोऽभूत् । अथ पुनः कुसुमशरस्य कामस्य बाधा कास्ति खलु ? वक्रोक्तिः श्लेषश्च ॥१०॥ समुद्रसदसनादरतायामस्तु सज्जनाभिनर्मदायाम् । का निमज्ज्य हा निदाघभीतिर्या विलग्नके वलिप्रणीतिः ॥११॥ समुद्रेत्यादि-या विलग्नके वलिप्रणीतिः विलग्नके मध्यदेशे वलीनां त्रिवलीनां प्रणीतिर्यस्याः सा, सज्जा शोभना नाभिरेव नर्मदा नाम यस्या स्तस्याम्, समुल्लसन्ती या रसना करधनी तस्या आदरता विनयभावो यस्यास्तस्यां निमज्ज्य निदाघस्य प्रीष्मकालस्य भीतिर्भयपरिणतिः का? न काचिदपि । यद्वा या विलग्नं च तत् कं जलं च तस्मिन् वलि उस लोचनाका उपभोग किया, जिसमें आपत्तिसे रक्षा करनेकी शक्ति विद्यमान थी और शिशिर ऋतुके समान जिसकी शोभा थी। अर्थान्तर-सुलोचना मानों शिशिर ऋतु रूप थी, क्योंकि जिस प्रकार शिशिरऋतुमें नवप्रवालोपादानाय-नवीन किसलयोंकी प्राप्तिके लिये 'अपत्रपतापत्ररहितता होती है, अर्थात् पतझड़ आ जाती है, उसी प्रकार सुलोचनामें भी वह आपत्रपता-आपत्तिसे रक्षा करनेको शक्ति विद्यमान थी ॥९॥ ___ अर्थ-जबकि राजा जयकुमार नखसे लेकर शिखा पर्यन्त कुमारावस्थाका उल्लङ्घन करनेवाली सुलोचनाकी हित साधनामें संलग्न थे, तब कामकी बाधा क्या थी ? कुछ नहीं। पूर्ण यौवनसम्पन्न सुलोचनाको प्राप्त कर उनकी कामविषयक समस्त आकाङ्क्षाएँ पूर्ण हई थीं ॥१०॥ ___ अर्थ-जिसके मध्यदेशमें त्रिवलि रूप त्रिवेणीको रचना है, जिसकी सुन्दर नाभि ही नर्मदा नदी है और जो समुद्रके समीचीन आस्वादनमें आदरभावसे सहित है, अथ च जो हर्षसहित शब्द करती मेखलाके विनय भावसे सहित है, उस १. पत्राणि दलानि पाति रक्षतीति पत्रपा, तस्या भावः पत्रपता, सा न भवतीति भपत्रपता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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