SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वाविंशः सर्गः १००७ वत्मनो मार्गस्य साक्षिकोऽनुभवकर्ता जयोऽन्वभूद् हि खलु रव लव)सम्पदांशिकसम्पत्यापि को विभवमयः सम्पत्तिशाली न कोऽपीत्यर्थः। यद्वा मधुलता वसन्तयुक्तता यया सहकारं नामाम्रतरुमियद्वान्वभूत् रवसम्पदा शब्दधिया विभवमयः पक्षिजन्मवान् पिकः कोकिल इत्यादि ॥४॥ अविकलिताम्बरमणिमयभूषालम्बितापि खलतापतनः सा । पायं पायमधररसमस्य तृषमुदपायदाशु जयस्य ॥५॥ अविकलितेत्यादि-अम्बरं वस्त्रं च मणिमयभूषा चाम्बरमणिमयभूषे, अविकलिते सर्वाङ्गसुन्दरे अम्बरमणिमयभूषे ताभ्यामालम्बितालङ्कृता, खलता दुष्टमनुष्यता तस्या अपगता दूरवर्तिनी तनुः शरीरं यस्यास्सा सुलोचनाऽस्य जयस्य नाम स्वामिनोऽधररसमोष्ठरसं पायं पायं मुहुः पीत्वापि आशु शीघ्रमेव तृषमुदपावयद् वाञ्छाक: बभूव । तथा अविकलिताऽम्बरमणिमयी सूर्यरूपा या भूषा तयालम्बिता तथैव खरश्चासौ तापरच खरतापः, स एव तनुर्यस्यास्सा खरतापतनुः, रलयोरभेदः । अधररसं पायं पायमपि तषमुदपावयत् पिपासामुपाजनयविति ग्रीष्मर्तुरिवेत्यर्थः ॥५॥ विलसद्धारपयोधरभावात् सारसातिशायिपदा वा। नवधान्यस्य मुवं सौभाग्यमाजुहाव सहजेन हि राज्ञः ॥६॥ किया था सो ठीक ही है, क्योंकि रवसम्पदा-लवसम्पदा-आंशिक सम्पदासे कौन मनुष्य विभवमय-वैभवशाली होता है ? अर्थात् कोई नहीं। अर्थान्तर-यतश्च सुलोचना कोई जगत्प्रसिद्ध मधुलता-वासन्ती लता थी, इसीलिये तो उसने सहकार-आम्रवृक्षका अनुभव किया था और वि-भवमयपक्षियोंमें जन्म लेनेवाला पिक-कोयल रवसम्पदा-मधुर शब्दश्री से युक्त हुई थी। तात्पर्य यह है कि सुलोचना वसन्त ऋतु रूप थी ॥४॥ अर्थ-जो सर्वाङ्गसुन्दर वस्त्र और मणिमय आभूषणोंसे सहित थी तथा जिसका शरीर खलता-दुष्टमनुष्यतासे दूर था, ऐसी सुलोचना इस जयकुमारके अधररसका बार-बार पानकर शीघ्र ही तृषाको उत्पन्न करती थी पुनः पुनः पान करनेकी इच्छा करती थी। अर्थान्तर-सुलोचना अखण्ड सूर्यरूपी आभूषणोंसे सहित थी तथा खरतापतीक्ष्ण तापरूप शरीरसे युक्त थी, अर्थात् ग्रीष्म ऋतु रूप थी, इसीलिये तो अधररसका बार-बार पान करनेपर भी जयकुमारकी तृषा-प्यासको शीघ्र-शीघ्र उत्पन्न करती थी । ग्रीष्म ऋतुमें बार-बार प्यास लगती ही है ।।५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy