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द्वाविंशः सर्गः अथ भो भव्या भवेन्मुवे वः सारसबन्धुरयं जयदेवः । सा रजनी रामा बहुमान तमनुबभूव च धामनिधानम् ॥१॥
अथेत्यादि-अथ प्रकरणारम्भे, भोभव्याः! सज्जनलोकाः ! सारेणोत्तमभागेन सबन्धुहितेषी योऽयं जयदेवो वो युष्माकं प्रसन्नताथं भवेत् । यद्वा सारसस्य कमलस्य बन्षुः सूर्य इव भवेत्, भव्यानां कमलसदृशकोमलहृदयानां वो युष्माकम् । सारात्पवित्रभागाजनिरुत्पत्तिर्यस्यास्सा सारजनिः, सासौ रामा सुलोचना धामनिधानं तेजस्विनं जयकुमारं बहुमानं यथा स्यात्तथानुबभूव भुक्तवती । यहा सा रामा रजनीव बहुमान सम्माननीयं धाम्नो निषानं सूर्यमिवानुबभूवानुजगाम । यथा रात्रिः सूर्यमनुसरति, तदनन्तरगामिनी भवति, तथा सुलोचना जयानुगामिनी जाता ॥१॥
मधुरं वचो हममत रङ्गं सातपमत्राखिलमप्यङ्गम् । शरदमुपेत्य निगरमबलायाः सर्वर्तुमयामोदमथायात् ॥२॥ घनोदयं कुचमत्युत्तुङ्गमदुशशिशिरमितिभारमभङ्गम् । यया सुविधया सम्पदाश्रयं समयमन्वयं नयन्नपि जयः ॥३॥
. अर्थ-हे भव्य जनो! जो सार-सबन्धुः-उत्कृष्ट भागसे सबका हितैषी है अथवा सारस-बन्धु:-कमलोंका वधु-सूर्य रूप है, ऐसा यह जयकुमारदेव तुम राबके आनन्दके लिये हो और सारजनिः रामा-सार-पवित्रभागसे जिसका जन्म है, अथवा सारभूत-श्रेष्ठतम जिसका जन्म है, ऐसी रामा-सुलोचनाने तेजके निधानभूत जयकुमारका उपभोग किया अथवा रजनी सा रामा-रात्रि रूप वह सुलोचना सूर्यके समान जयकुमारकी अनुगामिनी हुई अर्थात् जिस प्रकार रात्रि सूर्यका अनुगमन करती है, उसी प्रकार सुलोचना जयकुमारका अनुगमन करती थी, उनकी आज्ञानुसार आचरण करती थी। अथवा जयकुमार सारसबन्धुसूर्य थे और सुलोचना रजनी-रात्रि थी। रात्रिने सूर्यका उपभोग किया यह विरुद्ध है, अतः परिहार पक्षमें ऊपर लिखे अनुसार सार-सबन्धु-का अर्थ है उत्तम भागसे बन्धुसदृश-हितैषी और सारजनीका अर्थ है सारजनिः रामा-सारभूतजन्मवाली स्त्री । यहाँ रेफका लोप होनेपर पूर्व स्वरके दीर्घ हो जानेसे सारजनी रामा-रूप हो जाता है ॥१॥
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