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________________ ८०-८१ ] एकविंशतितमः सर्गः प्रित्यामित्यादि-एको नरः प्रियां स्वेष्टां समुद्दिश्य लक्षीकृत्य श्रान्ततयेव समालस्यभावेनेव स्वमास्यमात्मीयमुखं तन्मुखचुम्बनरूपस्वाभिप्रायाभिव्यक्त्यर्थं समस्पृशत् । तदा सा वामा सुन्दरी चास्य विलोकनात् संघृणयेव निरादरभावेनेवाधरं स्वकीयमोष्ठं परावृत्य स्वकीयायाः सानुरागतायाः सन्ध्याया सूचनावती रराज ॥७९॥ वनिताजनिता तरला गीतिः स तु तूर्यरवः समुदात्तः। सुविकाशि नृपाङ्गणमासीद्धर्षमितः सकलश्च निशान्तः ॥४०॥ वनितेत्यादि-तदानीं तत्र वनिताभिः स्त्रीभिर्जविता संकलिता माधुर्ययुताऽवसरोचिता गोतिरासीत् तु पुनः समुदात्तः प्रस्पष्टरूपमुदा हर्षेण सहितः समुत्, समुच्चासावात्तः समारब्धस्तूर्यरवो भेरीनावोऽप्यासीत् । सकलोऽपि निशान्तोऽन्तःपुरप्रदेशः स हर्षमितः प्रसन्नभावं गत आसीत् । तथा नृपाङ्गणमपि सुविकाशि आसीत् । यत्र तत्र सर्वत्र प्रसन्नभावोऽभूदिति ॥८॥ विशद्भिर्जनैनिःसरद्भिश्च शश्वन्नृपद्वारमाभून्नियोगिप्रसिद्धैः । अतिव्याकुलं शब्दविस्तारयुक्तं तरङ्गैरिदानीमिवाम्भोधितीरम् ।।८१॥ विशद्धिरित्यादि-इदानी नियोगिषु कार्यार्थ नियुक्तेषु ये प्रसिद्धास्तैर्जनैः कैश्चिद्विशद्धिः कैश्चिच्च निःसरद्धिः शश्वत् पुनः पुनरित्यतिव्याकुलं संव्याप्तं तथा शब्दस्य कलकलस्य विस्तारेण युक्तमतस्तरङ्गाप्तमम्भोधितोरभिवाभूत् सम्बभूवेत्युपमालंकारः॥८॥ अर्थ-किसी एक पुरुषने अपनी स्त्रीको लक्ष्यकर-उसे देखकर अलसाये भावसे अपने मुखका स्पर्श किया, अर्थात् चुम्बनका अभिप्राय प्रकट किया और स्त्रीने भी इसे देखा अनादरभाव अथवा समीचीन दयाभावसे अपने ओठको परावृत्त किया, अर्थात् लाल ओंठ दिखाकर उसने संध्या समयकी सूचना दी । ऐसा करती हुई वह स्त्री अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥७९।। अर्थ-उस समय स्त्रीजनोंके द्वारा संकलित अवसरोचित मनोहर गान हो रहा था, हर्षसहित प्रारम्भ किया भेरोका जोरदार शब्द हो रहा था, राजाका आंगन विकसित-चहल पहलसे युक्त था और समस्त अन्तःपुर हर्षको प्राप्त हो रहा था, जहाँ तहाँ सभी जगह हर्ष छाया हुआ था ।।८।। अर्थ-इस समय निरन्तर प्रवेश करते और बाहर निकलते हुए अधिकारी पुरुषोंसे अत्यन्त व्याकुल तथा कलकल शब्दसे युक्त राजद्वार तरङ्गोंसे व्याप्त समुद्र तटके समान हो रहा था ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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