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________________ जयोदय- महाकाव्यम् [ ४३-४४ काञ्चनस्थितिमतीं वसुन्धरां साधारणवसतियुक्तां भुवं तथा सुवर्णरूपिणीं युवतिमवलम्बते स्म स्वीचकार । उत्कतां सोत्कण्ठतामनुभवन् सन्निति समासोक्तिः ॥ ४२ ॥ नैककल्पतरुत पितस्थितीन् स्वप्सरोवरसमर्थितानिति । ९८६ नाकनाम दधतो जनाश्रयान् संजगाम पथि शक्रवद्रयात् ॥४३॥ नैकेत्यादि- - स नराट् पथि मार्गे शक्रवदिन्द्रो यथा स रयाच्छीघ्रमेव नाकनाम दधतो निर्दोषनामयुक्तान् निष्पापान् पक्षे स्वर्गनामकान् जनाश्रयान् देशान् संजगाम, यतो नैककल्पैर्बहुविधेस्तरुभिः पक्षे नैकैर्बहुभिः कल्पनामतरुभिस्तपिता अलंकृता स्थितिर्येषां तान् । तथा सुन्दरा आपो जलानि येषु तैः सरोवरैरथवा सुन्दरैरप्सरसां नीलाञ्जनादीनां वरैः रलयोरभेदाद् बले रूपैः समर्थतान् युक्तानिति । 'बलं गन्धरसे सैन्ये स्थामनि स्थौल्यरूपयोः' इति विश्वलोचनकोषे । श्लेषोपमालंकारः ॥ ४३ ॥ तत्र स प्रभविधेनुगत्वतः स्नेहमाप वृषवत्सलत्वतः । शस्यतोयजनसंश्रयत्वतस्तुल्यतामनुभवन् महत्वतः ॥४४॥ तत्रेत्यादि- नरराट् तत्र देशे तुल्यतामनुभवन् स्नेहमाप, यतः प्रभवः श्रेष्ठोत्पादः स यासामस्ति ताः प्रभविन्यः, ताश्च ता धेनवश्चेति प्रभविधेनवस्ता गच्छति यस्तद्भावतः । पक्षे प्रभासहिता सप्रभा, तथाभूता विधा प्रकारो यस्य तस्मिन् सदाचारिणि जनेऽनुगत्वतो विनयभावतः । तथा वृषान् बलीवर्दान् वत्सांस्तर्णकांश्च लाति स्वीकरोति अर्थान्तर - जिस प्रकार कोई पुरुष कुत्सित मुखवाली स्त्रीको छोड़कर सुन्दरमुख वाली स्त्रीको बड़ी उत्कण्ठासे प्राप्त होता है, उसी प्रकार जयकुमार ऊबड़-खाबड़ वनभूमिको व्यतीत कर अन्य सुन्दर भूमिको बड़ी उत्कण्ठासे प्राप्त हु ॥४२॥ अर्थ - राजा जयकुमार मार्ग में इन्द्रके समान शीघ्र ही उन जनाश्रयों - देशोंको प्राप्त हुए जो अनेक प्रकार के वृक्षोंसे सन्तोषकारक स्थिति वाले थे (पक्ष में अनेक कल्पवृक्षोंसे सन्तोष कारक स्थिति वाले थे), सुन्दर जलके सरोवरोंसे सहित थे (पक्षमें सुन्दर अप्सराओंसे सहित थे) और निर्दोष नामको धारण करने वाले थे ( पक्ष में स्वर्गं नामको धारण कर रहे थे ) ॥ ४३ ॥ अर्थ - राजा जयकुमार उस देशमें तुल्यताका अनुभव करते हुए स्नेहको प्राप्त हुए । तुल्यता निम्न प्रकार थी जिस प्रकार जयकुमार सप्रभविधेनुगसदाचारी जनों में विनयशील थे, उसी प्रकार वह देश भी सप्रभविषेनुग- अच्छी नस्ल की गायोंको प्राप्त था। जिस प्रकार जयकुमार वृषवत्सल-धर्मस्नेह से सहित थे, उसी प्रकार वह देश भी वृषवत्सल-बैल तथा बछड़ोंको स्वीकृत करने वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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