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________________ ४०-४२] एकविंशतितमः सर्गः ९८५ प्रदेशे कलितं लग्नमञ्जनं कज्जलं यस्याः सा वनी साध्वनि मार्गे कुलवधूः किलेब राजते ॥३९॥ हे सुकेशि ! तव केशपाशतो व्यस्त पिच्छ इव पश्यतादितः । सालशालिविपिनं विशत्यथासावपत्रपतया शिखावलः ॥४०॥ डे सुकेशीत्यादि-हे सुकेशि ! अथेतः पश्यतात् तव केशपाशतः श्लक्ष्गताविषये व्यस्तः पराजितः पिच्छः पिच्छभागो यस्य स शिखावलः केको किलासापत्रपतयोन्मुक्तपिच्छतया सलज्जतया वा सालै म वृक्षः शालि शोभनं यद्विपिनं वनं विशति विगाहत इत्युप्रेक्षा ॥४०॥ मन्दगामिनि ! तवालसां गति शिक्षतेऽथ कलभोऽसकावितः । वीक्षते दृशि पराजितो मृगोऽवं पलायितुमयं द्रुतं वजन् ॥४१।। मन्देत्यादि-हे मन्दगामिनि ! असावेवासको कलभो हस्तिशावक इतस्तवालसां मनोहरां गति शिक्षते । अयं मृगश्च दृशि चक्षुषि विषये पराजितः सन् द्रुतं शीघ्रमेव व्रजन् पलायितु तिरोभवितुमङ्क स्थानं वीक्षते । पूर्वोक्त एवालंकारः ॥४१॥ काननावनिमतीत्य वेगतः स्वात्मवान् समवलम्बते ततः । काञ्चनस्थितिमती वसुन्धरामुत्कतामनभवन्नथो नृराट् ॥४२॥ काननेत्यादि--अगो नराट् जयकुमारो यः किलात्मवान् विचारशीलः स वेगतोऽविलम्बभावेन कानमस्यानि भूमि तथा च कुत्सिताननामवनिनाम स्त्रियमतीत्य त्यक्त्वा कुलवधू नेत्रभागकलिताञ्जना-चक्षुःप्रदेशमें कज्जल लगाये होती है, उसी प्रकार वनी भी नेत्रभागकलिताञ्जना-जड़से युक्त अञ्जन नामक वृक्षोंसे सहित है ||३९|| अर्थ-हे सुकेशि ! इधर देखो, तुम्हारे केशपाशसे जिसकी पिच्छ पराजित हो गई है, ऐसा यह मयूर लज्जासे ही मानों सागौनके वृक्षोंसे सुशोभित वनमें प्रवेश कर रहा है ॥४०॥ अर्थ--हे धीरे धीरे चलने वाली प्रिये ! इधर यह हाथीका बच्चा तुम्हारी अलसायी चालको सीख रहा है और इधर शीघ्र चलने वाला मृग तुम्हारी दृष्टिसे पराजित हो मानों भागने अथवा छिपने के लिये स्थान देख रहा है ।।४।। ____ अर्थ-तदनन्तर विचारशील राजा जयकुमार वेगसे वनभूमिको लाँघकर उत्कण्ठाका अनुभव करते हुए अच्छो स्थितिका धारण करने वाली भूमिको प्राप्त हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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