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________________ जयोदय- महाकाव्यम् [ ३४ भासत इत्यादि - अथवासावखिलजलाशयानामधिपः खशानामाधारो यः किल कर्बुराणां कृष्णवृन्तानामोघमाक्षिपत् स्वीकृतवान् यश्च वरुणानां नामवृक्षाणां वल्लभस्तथा सम्भवन्ती या तरणिः कुमारी तस्याश्चारेण प्रचारेण वारितोऽलंकृतः परिवारितोऽतः सिन्धुवद्भासते, सिन्धुरपि किलाखिलानां जलाशयानां तटाकादीनामधिपः सन् कर्बु रस्य जलस्यौघमूरीकरोति, वरुणस्य देवस्य वल्लभो भवति, तरणिनकापि तत्र चरतीति । 'कबुरा कृष्णवृन्तायां जले हेम्नि च कबु रम्' । ' जलाशयो जलाधारे जलदे तु जलाशयम्' इति च विश्वलोचने ॥ ३३ ॥ १८२ वेणुवारसहितश्च तन्त्रिकापूरितः सघन इष्यते च यः । नर्तकप्रतिगुणः शुभाननेऽमुष्य पश्य फ़िल नर्तनालयः ||३४|| वेणुवारेत्यादि - हे शुभानने ! पश्यामुष्यान्वयोऽयं समागमो नर्तनालयः किलेष्यते, यतोऽसौ वेणुवंशोवारश्च कुब्जवृक्षस्ताभ्यां सहितः, पक्षे वेणुवाद्यस्य वारेणावसरेण सहितः । तन्त्रिकया वीणया पक्षेऽमृतया नामौषध्यः पूरितः । घनेन वाद्येन मुस्तया वा सहितः सघनः । नर्तकः कदलीवृक्षो नटश्च तस्य प्रतिगुणः प्रभावो यत्र सः ॥ ३४ ॥ अर्थ - यह वनप्रदेश समुद्रके समान सुशोभित हो रहा है, क्योंकि जिस प्रकार समुद्र अखिलजलाशयाधिप- समस्त जलाशयोंका स्वामी है, उसी प्रकार वनप्रदेश भी अखिलजलाशयाधिप- समस्त खशोंका आधार है । जिस प्रकार समुद्र कर्बुरौध-जल समूहको स्वीकृत करता है, उसी प्रकार वनप्रदेश भी कर्बुरौघकृष्णवृन्त नामक औषध वृक्षोंको स्वीकृत करता है । जिस प्रकार समुद्र वरुणवल्लभ - वरुणदेवको प्रिय है, उसी प्रकार वनप्रदेश भी वरुणवल्लभ - वृक्षों को प्रिय है और जिस प्रकार समुद्र संभवत्तरणिप्रचारवारित - उपलब्ध नौकाओंके संचार - से सुशोभित होता है, उसी प्रकार वनप्रदेश भी संभवत्तरणिचारवारित - सब ओर उत्पन्न होनेवाले घीगँवारके प्रसारसे सुशोभित है ||३३|| अर्थ - हे सुमुखि ! देखो, वनका यह प्रदेश एक नर्तनालय - नृत्यशाला है, क्योंकि जिस प्रकार नर्तनालय वेणुवारसहित - बांसुरीके अवसरसे सहित होता है, उसी प्रकार वनप्रदेश भी वेणुवारसहित - बांस और कुब्ज नामक वृक्षोंसे सहित है । जिस प्रकार नर्तनालय तन्त्रिकापूरित-वीणाके स्वरसे पूरित रहता है, उसी प्रकार वनप्रदेश भी तन्त्रिकापूरित - अमृता नामक औषधिसे परिपूर्ण है । जिस प्रकार नर्तनालय सघन - घण्टा आदि घन वाद्योंसे सहित होता है, उसी प्रकार - वनप्रदेश भी सघन - मोथासे सहित है और जिस प्रकार नर्तनालय नर्तकप्रतिगुणनृत्यकार के प्रभावसे सहित होता है, उसी प्रकार वनप्रदेश भी नर्तकप्रगुण - कदली - वृक्ष के प्रभावसे सहित है ||३४|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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