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जयोदय-महाकाव्यम्
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कर्णपूरेत्यादि - अथवासौ कामिनीजन इवानुमानितो विद्वद्भिः । यतः कर्णपूराण शिरीषाणां पक्षे कर्णभूषणानां परिणामेन संयुतः । श्रोणिश्च वृक्षविशेषस्तेन बद्धा सम्बद्धा या सुरसा नामौषधिस्तयाथवा सकटी समीचीना भागधी तयेष्टाभियुक्ता सुरसा पक्षे श्रोणी' या संकटीप्रवेशे वा बद्धा या सुरसा मेखला तया समन्वितः । कटेन किलिजेन वंशजालेन सहितः सकटश्चासावक्षो बिभीतकस्तस्य यत्र सः, यद्वा सकटाक्ष: धवस्तस्य दर्शनं यत्र पक्षे कटाक्षेणापाङ्गेन सहितं दर्शनमवलोकनं यस्य सः । ' कटः श्रोणौ शयेऽत्यल्पे किलिञ्जगजगण्डयो:' इति, 'कटी स्यात्कटिमागध्यो:' इति विश्वलोचने ॥३०॥
वातकेलिपरिवारितोऽप्यथालोक्यते कुहरिताश्रयस्तथा । सद्रसालसहितोऽमुना पथा राजते च सुरताश्रमो यथा ॥ ३१॥
वात केल्यादि — अथासौ वनखण्डः स वातकेलिर्वातस्य क्रीडा तथा परिवारितस्तथा कुहरितस्य कोकिलरवस्याश्रयस्तथा सद्रसालेनास्म्रवृक्षेण सहितोऽवलोक्यतेऽमुना पथा मार्गेण पद्धत्या वा यथा सुरताश्रमो राजते तथा राजते । सुरताश्रमोऽपि वातकेल्या कामि
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हरीतकी - हर्डके वृक्षोंको धारण करनेवाला है ||२९||
अर्थ - अथवा इस वनप्रदेशको विद्वानोंने स्त्रीसमूहके समान माना है, क्योंकि जिस प्रकार स्त्रीसमूह कर्णपूरपरिणामसंयुत - कर्णाभूषणों के विविध प्रकारोंसे सहित होता है, उसी प्रकार वनप्रदेश भी कर्णपूर परिणामसंयुत - शिरीष वृक्षोंके प्रकारोंसे सहित है । जिस प्रकार स्त्रीसमूह श्रोणिबद्धसुर सासमन्वित - नितम्बपर बद्ध मेखलासे सहित होता है, उसी प्रकार वनप्रदेश भी श्रोणिबद्धसुरसासमन्धितश्रोणि नामक वृक्षविशेषसे बद्ध सुरसा नामक औषधिसे सहित है और जिस प्रकार स्त्रीसमूह सब ओर सकटाक्षदर्शन-कटाक्ष-तिरछी चितवनसे सहित अवलोकनसे युक्त होता है, उसी प्रकार वनप्रदेश भी सकटाक्षदर्शन - कलिंजर नामक वृक्षसहित बहेड़ोंके दर्शनसे युक्त है ||३०||
अर्थ - अब इस ओर यह वनखण्ड सुरताश्रम - संभोग स्थानके समान सुशोभित हो रहा है, क्योंकि जिस प्रकार संभोगका स्थान वातकेलिपरिवारित-कामि जनोंके दन्तखण्डन अथवा मधुर-आलापसे सहित होता है, उसी प्रकार यह वनखण्ड भी वात लिपरिवारित वायुकी क्रीडासे सहित है। जिस प्रकार संभोगका स्थान कुहरिताश्रय- संभोगकालीन शब्दसे सहित होता है, उसी प्रकार यह वन
१. वातकेलिः कलालापे षिङ्गानां दन्तखण्डने ।
२. क्लीबं कुहरितं ध्वाने पिकालापे रतस्वने' इति विश्वलोचनः ।
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