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२५-२६ ]
एकविंशतितमः सर्गः
दृष्टिमेष परितः प्रसारयन्नित्युदीर्य गुणितां च धारयन् । वाचमाचरितचापलो व्यभाद् भूपतिश्च रमयन् स्ववल्लभाम् ॥२५॥
दृष्टिमित्यादि - - एष भूपतिर्जयकुमारः स परितो दृष्टि प्रसारयन् गुणितां गुणयुक्ततां धारयन् सन् आचरितं चापलं विनोदार्थं चाञ्चल्यं येन तथाभूतः सन् वाच वाणीमिति निम्नाङ्कितामुदीयं स्ववल्लभां सुलोचनां रमयन्नानन्दितां कुर्वन् व्यभात् सम्बभौ ||२५||
हे सुकेशि करहाटसंयुतं सर्वतोऽलिपकपूरपूरितम् । श्रोटिमत्सर इवेदमञ्चितं सेचनादिभिरपेक्षिणां हितम् ॥ २६॥
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हे सुकेशीत्यादि - हे सुकेशि ! इदं वनं सरो जलस्थानमिवापेक्षिणां जनानां हितं सुखदमस्ति यत्तद् इदं करहाटे : ' शल्यदुमः पक्षे कमलकन्दैः संयुतमस्ति । तथाऽलिपका: पिकाः पक्षे भ्रमरास्तेषां पूरेण समूहेन पूरितमस्ति । तथा त्रोटिमच्च रे कट्फलैर्युक्तमपि क्षुद्रमीनभरितम् । तथा सर्वतः रोचनः कूटशाल्मलिवृक्षः पक्षे रक्तकमलं तदादिभिरप्यन्वितमित्युपमालंकारः ॥ २६ ॥
थी । वन दारुणोचित - काष्ठसे परिपूर्ण था और सेना दारुणोचित - कठिन कार्यों में अभ्यस्त थी || २४ ॥
अर्थ - यह राजा जयकुमार सब ओर दृष्टि फैलाते गुणसहितताको धारण करते, चञ्चलताको स्वीकार करते और निम्नाङ्कित वचन कहकर अपनी प्रियासुलोचनाको प्रसन्न करते हुए अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ||२५||
अर्थ - हे सुन्दर केशोंवाली प्रिये ! यह वन अपेक्षा करनेवाले मनुष्योंके लिये सरोवर के समान हितकारक है, क्योंकि जिस प्रकार सरोवर करहाट - कमलकी जड़ों सहित होता है, उसी प्रकार यह वन भी करहाट - शल्य वृक्षोंसे सहित है । जिस प्रकार सरोवर अलिपक- भ्रमरोंके समूहसे पूरित रहता है, उसी प्रकार यह वन अलिपक-कोयलोंके समूहसे पूरित है । जिस प्रकार सरोवर त्रोटिमत्क्षुद्र मछलियोंसे सहित होता है, उसी प्रकार यह वन भी त्रोटिमत् - कट्फल (कायफल ) से सहित है और जिस प्रकार सरोवर रोचन-लाल कमल आदिसे सहित होता है, उसी प्रकार यह वन भी रोचन - कूटशाल्मलि आदि वृक्षोंसे सहित है ||२६||
१. करहाटोऽब्जकन्देऽपि शल्यद्रौ कुसुमान्तरे । इति विश्वलोचनः ।
२. पिकेऽलिपकस्तु स्यात्पिकालिरतहिण्डके ।
३. त्रोटि : स्त्रीचञ्चुमीनकट्फले । ४. रोचनो रक्तकह्लारे कूटशाल्मलिशाखिनि ।
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