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जयोदय- महाकाव्यम्
[ १७-१९
साङ्कुशं स च तिरो वहन् शिरः संप्रसारितकरो वशां पुरः । संगतां प्रतिनिवेदितुं गजः शीघ्रमदितसृणिग्रहोऽव्रजत् ॥१७॥
साङ्कुशमित्यादि - गजो हस्ती स पुरः संमुखमेव संगतां वशां हस्तिनीं प्रतिनिवेदितु ं संभालयितु संप्रसारितकरः समुत्स्फालितशुण्डादण्डः शीघ्रमेवाद्दितो निरावरीकृतः सृणेरङ्कुशस्य ग्रहोऽभिप्रायो येन स साङ्कुशं शिरस्तिरोवहन् सन्नव्रजत् चचाल ॥ १७॥ खादति स्म सरसं समीहया केनचिन्निजजनप्रतीक्षया । सादिनैव सरणौ मुहुर्धृतः सान्द्रमुष्ट्रकयु वेदमग्रतः ॥ १८ ॥ खादतीत्यादि - - कोऽप्युष्ट्रकयुवा केनचित्साविनेव निजजनस्य प्रतीक्षया हेतुना सरणी मार्गमध्य एव मुहुर्धृत उपस्थापितस्सन् समीहया सम्यगिच्छयाऽग्रतः सम्प्राप्तं सान्द्र सरसं वस्तु खादति स्म चखाद । जात्यलङ्कारः ॥ १८॥ लाघवप्रतिमितक्रियाजपिन् स्फालनानुकृतलाल नानपि । अश्विनोऽधिरुरुहुर्हयान् स्वयं वङ्कशोऽङ्कितसवल्गपाणयः ।।१९।।
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लाघवेत्यादि - हे लाघवेन सौन्दर्येण प्रतिमितौ संयुतौ क्रियाजपौ यस्य तस्य सम्बोधनम् । तत्राश्विनोऽश्वारोहा जनाः स्वयमात्मनैव वङ्कशः पर्याणस्योपरि अङ्कितः स्थापितः सवल्गः खलीनसहितः पाणिर्हस्तो पेस्ते स्फालनेनाश्वासदानेनानुकृतं लालनं सम्भालनं येषां तान् हयानविरुरुहुः ॥ १९॥
प्रिय स्थानको प्राप्त हुई थी ॥ १६ ॥ अर्थ - सामने आयी हुई हस्तिनीको सँभालने - उसके प्रति प्रेम प्रदर्शित करनेके लिये जिसने अपनी सूंड़को फैलाया है तथा जिसने अंकुशके प्रहारकी शीघ्र ही उपेक्षा कर दी है, ऐसा हाथी अङ्कुश लगे शिरको तिरछा करता हुआ
जा रहा था ॥ १७॥
अर्थ - अपने साथी की प्रतीक्षा में किसी सवारके द्वारा मार्ग में बार बार रोका गया, खड़ा किया गया तरुण ऊँट सामने आयी सरस वस्तुको रुचिपूर्वक खा रहा था ॥ १८ ॥
अर्थ - जिसकी क्रिया और जप - एकाग्रता सौन्दर्य से सहित है, ऐसे हे प्रिय पाठक ! पीठ तथा मुख आदि पर हाथ फेरनेसे जिनके साथ प्यार प्रकट किया गया है, ऐसे घोड़ों पर सवारी करने वाले लोग, पलान पर लगाम सहित हाथ रखते हुए स्वयं ही-दूसरोंकी सहायताके बिना ही आरूढ़ हुए थे ।
भावार्थ - घोड़ों पर आरूढ होने वाले लोगोंने पहले उनके शरीर पर हाथ फेर कर प्रेम प्रदर्शित किया, लगाम हाथमें ली और लगाम सहित हाथको उनके
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