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________________ ९७२ जयोदय-महाकाव्यम् [११-१३ मार्गमित्यादि-मरुतो द्रुतंगमा वाताद पि शीघ्रगामिनस्तुरङ्गमा हयास्ते शीघ्रमेव मार्गमस्तमयितु समाप्ति नेतु किलात्र परास्ताः पराभवं नीता मुर्मुराः सूर्याश्वा येस्ते तुण्डतो मुखात् क्षुरान् शफानुद्गिरन्तः समुद्वमन्त इव चेलुः प्रजग्मुः। 'मुर्मुरः सूर्यतुरगे तुषवह्नौ च मन्मथै' इति विश्वलोचने । उत्प्रेक्षालंकारः ॥१०॥ कुर्वतीव हि खलोनकर्षणं सोढुमक्षमतया निधर्षणम् । सत्तरङ्गमगणः स्म धावति स्वामिनि स्वयमयं लसदगतिः॥१॥ कुर्वतीवेत्यादि-स्वयमेव सहजेनैव लसन्ती शोभना गतिर्यस्य स सतुरङ्गमानां हयानां गण: स्वामिन्यश्वारोहे खलोनस्य कविकायाः कर्षणं कुर्वतीव हि निधर्षणं स्वावज्ञा सोढुमक्षमतयाऽसमर्थभावेन किल तत्कालमेव धावति स्म दपावेत्युप्रेक्षालंकारः ॥११॥ पादिनामतिजवेन गच्छतां तेच्छवा इव तदा गरुत्मताम् । रेजिरे भुवि भुजा निरन्तरं संचलन्त उचिता इतादरम् ॥१२॥ पादिनामित्यादि-तदातिजवेन गच्छतां पाविनां पदगानां भुजा बाहव उचिताः प्रस्पष्टाकारा इतः प्राप्त आदरो रुचिभावो यत्र तद् यथा स्यात्तथा निरन्तरमेव सञ्चलन्तस्ते भुवि पृथिव्यां गरुत्मतां पक्षिणां छवाः पक्षा इव रेजिरे चेत्युत्प्रेक्षा ॥१२॥ अध्वकर्तनविवर्तविग्रहास्तेऽपि वद्दितपरस्परस्पहाः । शीघ्रमेव गमनश्रमंसहाः पत्तयो ययुरमी समुन्महाः ॥१३॥ अध्वेत्यादि-अध्वनो मार्गस्य कर्तनं व्यत्ययनं तस्य विवतं पर्याय एव विग्रहो येषां अर्थ-जो वायुसे भी अधिक शीघ्रगामी थे तथा शीघ्र ही मार्गको समाप्त करनेके लिये जिन्होंने सूर्यके घोड़ोंको परास्त कर दिया था, ऐसे घोड़े यहाँ मुखसे खुराको उगलते हुएके समान चल रहे थे ॥१०॥ अर्थ-स्वयं ही-विना प्रेरणा ही अच्छी गतिसे चलने वाला घोड़ोंका समूह स्वामीके लगाम खींचते ही दौड़ने लगा था, इससे ऐसा जान पड़ता था मानों वह लगाम खींचने रूप तिरस्कारको सहन करनेके लिये समर्थ न होनेके कारण ही शीघ्र दौड़ रहा था ॥११॥ अर्थ-उस समय तीव्र वेगसे चलने वाले पैदल सैनिकोंकी आदर-रुचिपूर्वक निरन्तर चलती हुई भुजाएँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानों पृथिवी पर चलने वाले पक्षियोंके पर ही हों ।।१२।। अर्थ-जिनके शरीर मार्ग काटनेके पर्याय स्वरूप थे, जो मार्गकी थकावट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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