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________________ ७-१० ] एकविंशतितमः सर्गः पद्धितापि पुनरग्रगामिता- सन्नियोगविषये मिथो रसात् । तद्रथस्य च मनोरथस्य चानन्यवेगिन इहाविराप सा ॥७॥ पद्धितापीत्यादि - इहानन्यवेगिनोऽन्यातिशायिवेगवतस्तद्रथस्य जयकुमारारूढरथस्य मनोरथस्य च मिथः परस्परं पुनरग्रगामितासन्न्यिोगविषये किलावयोः कोऽग्र गन्तु ं समर्थ इत्येवंरूपा सा सपद्धितापि रसात् स्वस्वबलवशादाविराय समुद्बभूव ॥७॥ मत्स्यकैरपि वराशयः समाः सत्तरङ्गतरलास्तुरङ्गमाः । सामजा हि मकरानुकारिणः सैन्यसागर इहाभिसारिणः ॥ ८ ॥ मत्स्यकैरित्यादि -- इह सैन्यसागरे सेनारूपसमुद्रेऽभिसारिणो गमनशीलाः वराशयः खड्गास्तेऽपि तु मत्स्यकैर्मानः समास्तथा ये तुरङ्गमा घोटकास्ते समीचीनास्तरङ्गा इव तरलाश्चञ्चलास्तथा सामजा हस्तिनस्ते हि मकरानुकारिणो नक्रसदृशा बभूवुरिति रूपकालङ्कारः ॥८॥ राजते हि जगती रजस्वलाऽमी ततोऽथ तुरगाः सुपेशलाः । स्मास्पृशन्त इति यान्ति कश्मलाद्भीतिमन्त इव तावदुत्कलाः ॥ ९ ॥ राजत इत्यादि -- तावदियं जगती भूमिः स्त्रीलिङ्गात् काचित् स्त्री वा होति निश्चयेन रजस्वला रेणुबहुला मासिकधर्मवती च राजतेऽत्र, ततो हेतुनोऽमी स्वमनीषागम्याः सुपेशलाः सुन्दररूपधारिणस्तुरगा घोटका: कश्मलात्पापाद् भीतिमन्त इव किलोत्कला व्याकुला भवन्त इति तामस्पृशन्तो यान्ति स्मेत्युत्प्रेक्षालंकारः ॥९॥ ९७१ Jain Education International मार्गमस्तमयितुं तुरङ्गमाः शीघ्रमेव मरुतो द्रुतंगमाः । उद्गिरन्त इव तुण्डतः क्षुराँश्चेलुरत्र तु परास्तमुर्मुराः ॥ १०॥ अर्थ - अतिशय वेगशाली जयकुमारका रथ और मनोरथ इन दोनोंके बीच, देखें कौन आगे जाता है, इस विषयको लेकर अपने अपने बलके अनुसार स्पर्धा प्रकट हुई थी । भाव यह है कि जिस प्रकार रथ शीघ्रतासे आगे जा रहा था, उसी प्रकार शीघ्र पहुँचनेका मनोरथ भी आगे बढ़ रहा था || ७|| अर्थ - इस सेनारूपी समुद्रमें चलने वाले जो गेंड़े थे, वे मच्छों के समान थे, जो घोड़े थे वे चंचल तरंगोंके समान और जो हाथी थे वे मगरोंके समान थे ||८|| अर्थ - घोड़े उछलते हुए जा रहे थे, उससे ऐसा जान पड़ता था मानो ये रजस्वला - धूलिसे युक्त (पक्ष में मासिक धर्म से सहित) जगती - पृथिवी ( पक्ष में किसी स्त्री) को पापके भयसे न छूते हुए व्याकुल भावसे जा रहे थे ||९|| ६४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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