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________________ जयोदय-महाकाव्यम् [८८ सत्सुरतेत्यादि-हे शिवगामिन् ! इयं देवता तावत् सत्सुरता सती प्रशंसायोग्या सुरता देवभावो यत्र सा सत्सुरतास्ति । तव च सुमनस्त्वं शोभनमनस्कत्वं देवत्वं च समस्त्येव । अहं पुनरभ्रमरीतिकरी निःसन्देहचेष्टाकारिणीमं मानवलोकं मर्त्यलोकं मधुरमणकतत्त्वं मधुरस्य क्षणस्यैकं तत्त्वं सुखसम्पत्तिर्यत्र तत्स्वर्ग निगदामि । तथा पुनरियं सत्सु सज्जनेषु मध्ये रता वल्लरीरूपा भवति, तव सुमनस्त्वं कुसुमत्वं प्रफुल्लवदनत्वान्निगदामि । भ्रमरीणामलिनीनामीतिकरी बाधाक: न भवामीति सा पुनरभ्रमरीतिकरीमं भूतलं मधुलक्षणस्य वसन्तस्वरूपस्यक तत्त्वं यत्र तदेव वदामि ॥८॥ सत्करोमि यत्पदयुगं सन्निधिरयमिह नाम । मम कर्मासन्निवृतं सममधिगतं ललाम ||८८॥ सत्करोमीत्यादि-अहं यस्य पदयुगं चरणयुगलं सत्करोमि सेवयामि स सन्निधिरस्माकं निकटवर्ती नामेह सा सन्निधिनिधानोत्तम इव वर्तते नाम, यतो ममासत्कर्म दुरितं निवृत्तं भवति । ललाम प्रशस्तं कर्म सुकृताख्यं तदिदानों सममेव सहसैवाधिगतमस्ति, पुण्योदयं विना सत्समागमो न भवतीति । दोहकछन्दः । इदं वृत्तं चतुरात्मकं लिखित्वा 'सत्सङ्गम' इति सर्गनामनिर्देशश्चाराक्षरैर्भवति ॥८८॥ अर्थ- हे शिवगामिन् ! यह देवी सत्सरता-प्रशंसनीय देवत्वसे सहित है और आपका सुमनस्त्व-देवत्व (पक्ष में प्रसन्नमनस्त्व) प्रसिद्ध है ही, ऐसा मान कर सन्देहरहित चेष्टाको करनेवाली मैं इस मानवलोक-मर्त्यलोकको मधुरक्षणैकतत्त्व-मनोहर समयरूप अद्वितीय तत्त्वसे युक्त-स्वर्ग कहती हूँ, अर्थात् यह मर्त्यलोक मुझे देव-देवियोंसे युक्त स्वर्ग जैसा लग रहा है। ___अर्थान्तर-हे शिवगामिन् ! यह देवी सत्सुरता-सत्पुरुषोंके बीचमें सुन्दर लता है, आपका सुमनस्त्व-पुष्पत्व प्रसिद्ध है हो और में अभ्रमरीतिकरीभ्रमरियोंको बाधा न करनेवाली भ्रमरी हूँ, अतः इस मानवलोक-मर्त्यलोक अथवा मा लक्ष्मीसे युक्त नव-नवीन लोकको मधुरक्षणैकतत्त्व-मधु-पुष्परसकी रक्षा करना ही जिसका प्रमुख तत्त्व है, अथवा मधुलक्षण-मधु नामसे जो सहित है, ऐसा वसन्त कहती हूँ। लता लहलहा रही है, फूल खिल रहा है, उन पर भ्रमरी मँडरा रही है और लोक-पृथिवी तल शोभासे नित्य नवीन रूप धारण कर रहा है । इसलिये यह ऋतुराज वसन्त ही है, ऐसा मैं कहती हूँ ।।८।। ____अर्थ-मैं जिनके चरणयुगलकी सेवा कर रही हूँ, वह यहाँ मेरे लिये समीचीन निधिरूप है। मेरा पाप कर्म दूर हो गया है और पुण्य कर्म शीघ्र ही उदित हुआ है ।।८८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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