________________
९६४ जयोदय-महाकाव्यम्
[८३-८४ आमन्त्रदाना किमु देवताहमहो मदिष्टा किमु देवताह । मच्चित्तभानामसुदेवतापि त्वं येन लोकेष्विन देवतापि ॥८३॥
आमन्त्रदानेत्यादि-हे इन ! स्वामिन् ! मदिष्टा देवता किमु तावदाह, आमन्त्रदाना नमस्कारमन्त्रदानतयाऽमन्त्रणकी अहं किमु देवतास्मि ? अहो इत्याश्चर्योच्चारणे । लोकेषु त्रिषु जगत्स्वपि त्वं मच्चित्तभाना मम मनोवृत्तीनाम् असुदेवता प्राणसम्पादनकर्ती, अपि च पुनरियं देवतापि मम चित्तभा मम चेतसि प्रकाशक: सुदेवताः सूर्यकान्तिसवृशी विद्यते ॥३॥ देवीति यासौ नवनीतसम्पत्तयोदियायाभ्युवितानुकम्प ! दुग्धस्य धारेव किलाल्पमूल्यस्तत्रानुयोगो मम तक्रतुल्यः ।।८४॥
देवीत्यादि हे अभ्युदितानुकम्प ! दयाधारिन् स्वामिन् ! यासौ देवी सा दुग्धस्य धारेव किल नवा च तथा नीता समुपलब्धा सम्पत् तस्या भावस्तयाऽयवा नवनीतस्य म्रक्षणलक्षणस्य सम्पद् यत्र तत्तया वोदियाय। तत्र ममानुयोगः सम्बन्धस्तक्रतुल्योऽल्पमूल्य एव, यथा तक्रसंयोगेन दुग्धस्य दधिपरिणतिर्भूत्वा नवनीतसम्पत्तिकीं स्वयमेव भवति, तथासो मम निमित्तमात्रेण नमस्कारमन्त्रोपादानेन देवीभावमवाप ॥८४॥
अर्थ-हे इन ! हे स्वामिन् ! मेरी इष्टदेवता क्या कह रही है, नमस्कार मन्त्र देनेसे क्या मैं आमन्त्रण करने वाली देवी हो गई ? बड़े आश्चर्यकी बात है ? यह देवता तो मेरी मनोवृत्तियोंके लिये आसुदेवता-प्राणसंरक्षण करने वाली देवो है, साथ ही मम चित्तभा नाम सुदेवता-मेरे चित्तकी दीप्तिरूपी श्रेठ देवता है, अथवा चित्तमानामिनदेवता-चित्तके प्रकाशके लिये इनदेवता-सूर्यदेव है (इनश्चासौ देवश्चेति इनदेवः, इनदेव एव इनदेवता, स्वार्थे तल्) ||८२।। __ अर्थ-हे दयाधारी स्वामिन् ! यह जो देवी है, वह दूधकी धाराके समान नवीन रूपसे प्राप्त सम्पत्तिके रूपमें उदित हुई है, अथवा मक्खनरूप सम्पत्तिके रूपमें उत्पन्न हुई है। इस विषयसे मेरा संयोग तो तक्रके समान अल्पमूल्य है, अर्थात् कोई मूल्य नहीं रखता।
भावार्थ-जिस प्रकार तक्रके संयोगसे दूध दहीरूप होता हुआ स्वयं नवनीत-मक्खन बन जाता है, उसी प्रकार मेरे निमित्तमात्रसे प्राप्त नमस्कार मन्त्रके ग्रहण करनेसे यह देवीपर्यायको प्राप्त हो गई। इसके देवी बननेमें मेरा कुछ मूल्य नहीं है ॥८४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org