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________________ ८१-८२ ] विशतितमः सर्गः ९६३ प्रस्तावः सूपकारोऽतिशयेनोपकारकरण लक्षणस्ततः पुनरस्माभिः अस्मै शुभक्षणाय पुण्यसमयाय ललामाञ्जलिरेव सारः कृतः चरणवन्दनार्थं तेऽधुना । अथवा भक्ताय नामोदनाय सम्यगक्षतानां तण्डुलानामाप्तिर्यतस्तव स्तवः सूपकारो रसवतोकरो वर्ततेऽत एव च पुनरस्माभिर्भक्ष णायाशनकरणायाञ्जलिरेव कृतः । अहो इति प्रसक्तिः ॥ ८० ॥ पत्युक्तिमर्थातिशयेन गुर्वी धृत्वा कराग्रेण मुदां सदुर्वी । स्वयं लघुत्वाच्चलनेकबुक्का बभूव सौभाग्यसुमैकक्का ॥८१॥ पत्युक्तिमित्यादि - सौभाग्य सुमैकसृक्का सौभाग्यकुसुमनिर्माणकरी सुलोचना मुदां सदुर्वी प्रसन्नताभूमिः सती, अर्थातिशयेन गुर्वीं गभीरार्थवतों तत एव वयोवृद्धां च पत्युक्ति जयकुमारगिरं कराग्रेण धृत्वा हस्तसंयोजनपुरस्सरं श्रुत्वा संवाह्य च पुनः स्वयं लघुत्वाद्विनीतत्वादल्पवयस्कतया च चलनैकवृक्का चरणसन्नीतदृष्टिरभूत् ॥ ८१ ॥ होविस्मितिस्फातियुजित्रिनद्यां स्नात्वैव वृत्तोत्तमपुष्पभासा । चक्रे सुनेत्रा पतिदेवताच रदालिक्लृप्ताभिनवांशुका सा ॥८२॥ होत्यादि -- ह्रीश्च विस्मितिश्च स्फातिश्च ता युनक्तीति तस्यां त्रिनद्यां नवीत्रयधारायां स्नात्वा रवानां दन्तानामाल्या पङ्क्त्या क्लृप्तं सम्पादितमभिनवमंशुकं रश्मिजालो वस्त्रं च यथा सा सुनेत्रा काशीराजपुत्री वृत्तस्य छन्दस एवोत्तमपुष्पस्य यद्वा वृत्तस्य स्वीकृतस्योत्तमपुष्पस्य भासा शोभया पतिश्च देवता च तयोर्द्वयोरच चक्रे कृतवती ॥८२॥ इस शुभ क्षणके लिये सारभूत सुन्दर अञ्जलि बांधी है, अर्थात् आपने अपने साक्षात्कारका जो अवसर प्रदान किया, उसके लिये मैं हाथ जोड़कर कृतज्ञता प्रकट करता हूँ । अर्थान्तर - भक्ताय - भातके लिये समक्षत-अच्छे चावलोंकी प्राप्ति हुई है । इसलिये सूपकार - रसोइया आपकी स्तुति प्रशंसा करता है और इसीलिये मैंने उसे खाने के लिये शीघ्र ही अञ्जलि बाँध रक्खी है ||८०|| अर्थ - सौभाग्यरूप पुष्पका निर्माण करने वाली सुलोचनाने प्रसन्नताकी भूमि बन अर्थ अतिशयसे श्रेष्ठ पतिकी वाणीको हाथ जोढ़कर सुना और वह स्वयं लघु-नम्र अथवा अल्पवयस्क होनेसे पतिके चरणोंमें संलग्नदृष्टि हो गई ॥ ८१ ॥ अर्थ - लज्जा, विस्मिति और उदारता के संगम रूप नदीत्रय (त्रिवेणी) में स्नान कर सुलोचनाने छन्दरूपी उत्तम पुष्पोंकी कान्ति और दन्तपंक्ति से निर्मित नूतन वस्त्र द्वारा पति और देवताकी पूजा की || ८२|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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