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________________ ९६० जयोदय-महाकाव्यम् [७५ तवेत्यादि-हे देवि ! तवायं प्रणः परोपकारकरणलक्षणः स वृद्धि पाणिनीयव्याकरणसमुक्तामक्षरशोऽनुगत्य लब्ध्वा सदा सततमेवास्माकं जीवनकृत् प्राण इति भवितुमर्हति । अथवा वृद्धिमधिकतामनुगत्य सम्यगाजीवनकृत् सत्य एव । एवं कृत्वा भवत्या वाचोऽधुना सत्यः प्रशंसनीयाः, जगत्याः कर्णमरंकर्तु भूषयितुं भवत्या कलताऽतिशयमधुरता न वा किम् ? अपि तु भवत्येव, कुत्सितमृणं कर्णत्वरं कतं दूरीकतं पुनर्भवत्याः किंकरता कर्मकरभावस्तु न वा स्यान्नैव सम्भवेत् ॥७४॥ लेखीभवत्यत्र सदाक्षलानां समाश्रयायेवमथाखलानाम् । यामो वयं ते खल पत्रभावमहो दयास्मासु महोदया वः ॥७५।। लेखीत्यादि-अहो अस्मासु महोदया वो युष्माकं या दया साथाखलानां सज्जनानामक्षलानां चक्षुरादिमतां मानवानां समाश्रयाय लेखीभवति देवतारूपास्ति। ततः खलु वयं ते मानवरूपत्वादधुना पत्त्रभावं पदत्राणतां यामश्चरणलग्नतामाश्रयामः । अथ चाक्षराणां समाश्रयाय ते दया लेखीभवति लेखरूपतामाप्नोति । तत्र वयं पत्रभावं दलरूपता यामः । अस्मासु कृता भवतीनां दया सास्मिन् जगतीतले ताम्रपत्रायिता स्वर्णाक्षरा भवति किलेति ॥७५॥ अर्थ-हे देवि ! परोकार रूप आपका प्रण, वृद्धि-पाणिनीय व्याकरणमें प्रसिद्ध स्वर विकृतिविशेषको अक्षरशः प्राप्तकर सदाजीवनकृत्-हमारे जीवनको अथवा सत्-आजीव-सत् पुरुषोंके आजीवनको अथवा वृद्धि-अधिकताको प्राप्तकर समीचीन-आजीवनको करनेवाला सचमुच ही प्राण है। इस तरह आपके वचन सत्यः-प्रशंसनीय हैं। अथवा जगतो-पृथिवीनिवासी मानवोंके कर्णमरंकर्तु-कानोंको अलंकृत करनेके लिये आपको करता (कलता)-मधुरता क्या नहीं है ? अर्थात् है। अथवा कर्ण-कुत्क्षित ऋणको दूर करनेके लिये आपकी किंकरता-कर्तव्यशीलता क्या नहीं है, अर्थात् है । भावार्थ-पाणिनीय व्याकरणमें आ ऐ औ इन तीन स्वरोंकी वृद्धि संज्ञा है, अतः प्रतिज्ञावाची प्रण शब्दके आदि स्वरको आ वृद्धि करनेसे प्राण शब्द बनता है। इस प्रकार आदि अच्की वृद्धिको प्राप्त हुआ प्रण शब्द हमारे प्राण है। आपके इस प्रणसे ही हमारे जीवनकी रक्षा हुई है ॥७|| ____ अर्थ-अहो ! हम लोगोंके बीच आप महोदया हैं, आपकी जो दया है वह अखल-सज्जन मानवोंके लिये देवता रूप हैं। इसलिये हम आपकी पदत्राणता-को प्राप्त है, आपके चरणों में संलग्न हैं। अथ च-अक्षरोंके आश्रय के लिये आपकी दया लेखरूपताको और हम पत्ररूपताको प्राप्त हैं। तात्पर्य यह है कि हम लोगोंपर आपकी जो दया है, वह ताम्रपत्रपर अङ्कित स्वर्णाक्षरोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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