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जयोदय-महाकाव्यम्
[७०-७१ सा च त्वयि रुष्टा, हे गुणसेविन् ! अधुनेहोपद्रवक/ किलायाति स्म। अहंतु भवत्या सुलोचनया ऋद्धिमुपेत्यात्र प्रसङ्गेन तवृद्धिमात्रमेतत् तदुपद्रवदूरीकरणरूपं किलापितवतीति जानाहि ॥६७-६९॥
ऋणीकृताहं च कदानृणत्वं भजेयमाजेतुमिति वणित्वम् । तद्वद्धिमात्रैकविशुद्धिहेतुभूतेऽत्र चायामि विभो क्षणे तु ॥७०॥
ऋणीकृतेत्यादि-ऋणीकृताहमनृणत्वं कदा भजेयमित्येव व्रणित्वं केवलं तस्यवृद्धिमात्रकविशुद्धिहेतुभूते क्षणे त्वत्रायामि आव्रजामीदानों तावत् ।।७०॥
इयं गुरुत्वान्महिमानमेति निरुत्तरं त्वां वरमाश्रितेति । विश्वं त्वरं कर्तुमुपैमि देव ! गुणोदयं तेऽथ विमानमेव ॥७१॥ इयमित्यादि-इयं सुलोचना गुरुत्वादुपकारिरूपत्वान्महिमानं इलाध्यतमत्वमेति, या निरुत्तरमद्वितीयं त्वां वरं वल्लभमाश्रिता । यतोऽहं विश्वमलंकतु ते गुणोदयं विमानं मानजितमपरिमितपरिणाममुपैमि। इयं गुरुत्वाद् गौरवरूपतया महेर्धरिण्या मानं महिमानमेति त्वामेव त्वा पुनरम्बरमाकाशवदाश्रितास्ति । अथ हे देव ! विश्वं त्वरं कतुं गतिशोलं विधातु ते गुणोदयं विमानं व्योमयानमस्ति ॥७१।।
चण्डिका देवी हुई । वह दुष्टा आपपर रुष्ट है । हे गुणसेवक ! वही उपद्रव करने वाला समय पाकर यहाँ आ रही थी। उसीसे यह विक्रिया थी । मैं सुलोचनासे ही इस सिद्धिको प्राप्त हुई हूं, मेरी यह वृद्धि इन्हींकी देन है, अतः कृतज्ञतावश मुझ दासीने इन्हें यह सब अर्पित किया है ॥६७-६९।।
अर्थ-हे विभो ! मैं इस सुलोचनाके द्वारा ऋणीको गई हूँ । अब ऋणरहित अवस्थाको कब प्राप्त होऊँगी, यही एक घाव हमारे हृदयमें विद्यमान है । मैं इसकी वृद्धि-प्रत्युपकार कब कर सकूँगी, इस प्रकारको बुद्धिके कारण समयपर मैं आई हूँ।
भावार्थ-अपने अवधिज्ञानसे मुझे विदित हुआ कि हमारा उपकार करने वाली सुलोचना कष्टमें है, अतः उसके निवारणार्थ मैं इस अवसर पर
आयी हूँ ॥७०॥ ___अर्थ-यह सुलोचना गुरुत्वात्-उपकारो होनेसे महिमाको प्राप्त है और साथ ही आप जैसे अद्वितीय वरको प्राप्त हुई है, अतः मैं विश्वको अरं कर्तु-अलंकृत करनेके लिये आपके विमान-अपरिमित गुणोदयको प्राप्त हो रही हूँ। ___ अर्थान्तर-यह सुलोचना गुरुत्वाद्-भारी होनेसे महिमानं-पृथिवीको महिमाको प्राप्त है और त्वा अम्बरं-आप रूपी आकाशको प्राप्त है, अर्थात् आप
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