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________________ ६०-६२ ] विशतितमः सर्गः वर्णस्य स्तवनस्य यो नयः प्रणयनं तेनाश्रितापि प्राप्ता-परमेष्ठि स्तवनं कर्तुं लग्नेति भावः ।।५९॥ अहंदुक्तिसन्नद्धहृदारात् प्रतिकतुं प्रबभूव च वारा। आत्मनैव भाव्यं शबरेण धन्वियतापि यथा शबरेण ॥६०॥ अर्हदित्यादि-रलयोरभेदाद वारा सा सुलोचना 'अर्हन् अर्हन्' इत्यादिभिरुक्तिभिः सन्नद्धं हृद् मनो यस्यास्सा प्रतिकतु तदुपद्रवं प्रबभूव तावदारात् । यतः खलु आत्मनैवात्मनः शबरेण शंकरेण भाव्यं न पुनरन्येन केनचिद्यथा शबरेण नाम तेनभिल्लेन स्वयमेव द्रोणाचार्यप्रतिमामारोप्य स्वसहायेन धन्वियतापि प्राप्ता किल ॥६०॥ सुरतरङ्गिणी तां बहुमानामनुकूलोचितविटपविधानाम् । वारस्त्रीमुदयन्तीमार्यमापातयितुं हठाद् विचार्य ॥६१॥ तिरस्कुर्वती सती निकाममित्येषा सहसा निजगाम । शमुद्दीपितं साहसमस्या या विकटा खलु साह समस्या ॥६२॥ सुरेत्यादि-एषा सती सुलोचना तां सुरतरङ्गिणी देवनदों तथैव सङ्गरङ्गरङ्गवतों कीदृशीम् ? बहुमानां सविस्तरामतिशयमानवती च सौरूप्यादिविषये मां कापि स्त्री वानुकर्तुमर्हतीति । कूलं तटमनुवर्तन्ते तेऽनुकूलास्तेषामुचितानां विटपानां वृक्षाणां विधानं यत्र तां तथानुकूलानां सम्मुखीकृतानामुचितानां विटपानां कामिना विधानं यत्र तामेतां वारस्त्रों मानसैः-देवोंके हृदयसे भी प्रशंसनीय थी, ऐसी वह सुलोचना परमेष्ठियोंके स्तवन में निमग्न हो गई ॥५९।। अर्थ---'अर्हन अर्हन्'-'अरहन्त अरहन्त' इस प्रकारके उच्चारण में जिसका मन लग रहा था, ऐसी सुलोचना शीघ्र ही प्रतिकार करनेके लिये समर्थ हुई सो ठीक है, क्योंकि आत्मा स्वयं ही उस तरह शबर-शान्तिको करने वाला होता है, जिस तरहकी एक शबर-भीलने द्रोणाचार्यकी प्रतिमा स्थापित कर अपने आप श्रेष्ठ धनुष विद्या प्राप्त की थी ॥६॥ अर्थ-यह नदी एक वेश्याको समान थी, क्योंकि वेश्या जिस प्रकार सुरतरङ्गिणी-संभोगसम्बन्धी रङ्गसे सहित होती है, उसी प्रकार वह नदी भी सुर-तरगिणी-देवकृत तरङ्गोंसे सहित थी। जिस प्रकार वेश्या बहुमाना-सौन्दर्य आदिके गर्वसे सहित होती है, उसी प्रकार वह नदी भी बहुमाना-विस्तृत प्रमाणवाली थी और जिस प्रकार वेश्या अनुकूलोचितविटपविधाना-सम्मुखागत परिचित कामीजनोंके विधान-कार्यसे सहित होती है, उसी प्रकार वह नदी भो अनुकूलोचित ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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