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________________ ९५४ जयोदय-महाकाव्यम् [५८-५९ जलजलजातयोरेकजनकत्वाद भ्रातृभावतयेवास्य चरणौ जलजातमुपद्रवं न प्रतिकुरुतामिति ॥५७॥ अभावमत्रानुभवामि आतुरा न तेऽनुगृह्णन्तु किमीश्वराः सुराः । शयालवश्चेन्मम दृष्टिवृष्टितः स्फुटं सहायाः स्युरथासुराः सुराः॥५८।। अभावमित्यादि-अहमातुरा कष्टमापन्नाऽत्राभावं निस्सहायत्वमनुभवामि न कोऽपि सहायोऽस्मिन् विषय इति किलाहमभावं तुल्यत्वमस्य महानुभावस्य, तावदनुभवामि, या दशास्य सैव मेऽपि भवेदिति 'अस्तुल्यस्वेऽप्यभावेऽपि' इति वचनात् । ते प्रसिद्धा ईश्वरा अनाथानां सहायकारकास्सुरा इन्द्रादयस्तेऽपि किन्नानुगृह्णन्तु । किन्तेऽपि मम दृष्टिवृष्टितः शयालवी जाताः, वर्षाकाले देवानां शयनसम्भवादेवमेव चेत्तदाथ पुनरित एवासुराः स्फुटं स्पष्टमेव सहायाः स्युरिदानों तेषामुत्थानकालत्वादिति । अथवाहमत्राभावमकारत्वमनुभवामि, शोभनो र कारो यत्र ते सुरास्तपुनः ते तकारा अप्यनु गृह्णन्तु, यदि चेत्ते पुनः शयालवस्तदा पुनरकारस्य सुरा असुरास्तेऽनुगृह्णन्तु ॥५८॥ विपदम्बुनिधाविहाधुना घृतलेखेवदृढीभवन्मनाः । शुचिवर्णनयाश्रितापि नो महनीयामलमानसैः पुनः ॥५९|| विपदित्यादि-विपदम्बुनिधौ इहास्मिन् प्राणपतिसम् डनलक्षणेऽधुना पुनः सा सुलोचना स्त्री घृतस्य लेखेवामलमानसैः सज्जनैर्देवानां मनोभिश्च महनीया श्लाघनीया दृढीभवन्मनाः सुदृढतामासादितवती सती नोऽस्माकं शुचिवर्णनयाश्रिता शुचिः पवित्रो जलसे उत्पन्न थे और उपद्रव भी जलसे उत्पन्न था अतः एक जनक-जलसे उत्पन्न होनेके कारण दोनोंमें भ्रातृभाव स्थापित हो गया। इसलिये चरणजलजने जलजात उपद्रवका प्रतिकार नहीं किया ॥५७॥ अर्थ-कष्टमें पड़ी हुई मैं यहाँ अभाव-निःसहाय दशाका अनुभव कर रही हूँ अथवा अभाव-तुल्यावस्थाका अनुभव कर रही हूँ, अर्थात् जिस प्रकार उनका कोई सहायक नहीं है, उसी प्रकार मेरा भी कोई सहायक नहीं है। अनाथोंकी सहायता करनेकी सामर्थ्य रखने वाले वे इन्द्रादिदेव क्यों नहीं अनुग्रह करते हैं ? यदि वे मेरी नयनवृष्टि-लगातार आंसुओंकी वर्षासे शयन कर रहे हैं, तो वे असुर ही क्यों नहीं सहायक होते; क्योंकि वर्षाकाल तो उनके उठने का समय है ॥५८|| - अर्थ-इस विपत्तिरूप सागरमें जिसका मन घृत की रेखाके समान दृढ़ था तथा जो अमलमानसैः-निर्मल हृदय वाले सज्जनों अथवा अमर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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