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________________ ९५२ जयोदय-महाकाव्यम् [५४ १५ हृदित्यादि-अद इदममृतं जलं तदेव विषमिति नामामृत्युदमपि मृत्युदायकमेवेत्यालोचयतः सम्पश्यतो मे हृत् चित्तमेतत् तत्किल हे जिनाः ! भगवन्तोऽतोऽस्मात्कारणादेव वस्तुतां भवतां तु प्रख्यातां स्यादस्ति स्यान्नास्तीत्यादिरूपां सतो वस्तुतां वास्तवरूपतामङ्गीकरोति ॥५३॥ वाराणसीभूमिभृतः किशोरी यथोदयन्तं शशिनं चकोरी। धृतं समारब्धतमश्चयेन प्रतीक्षते स्माथ जयं रयेण ॥५४॥ वाराणसीत्यादि-समारब्धेन तमसो राहुग्रहस्य चयेनाडम्बरेण धृतं समाक्रान्तमुदयन्तमेव शशिनं यथा चकोरी, तथा वाराणसीभूमिभृतोऽकम्पनस्य किशोरी सुलोचना रयण जलप्रवाहकृतोपद्रवभूतेन प्रणाशरूपेण धृतं जयं प्रतीक्षते स्म ददर्श ॥५४॥ छायेवानुवर्तिनी भर्तुर्यतमाना मनीषितं कर्तुम् । विपदं गते सुखगता नासीत्तस्मिन् सेति कुतस्तु सुभाषी ।।५।। छायवेत्यादि-भर्तुः स्वामिनो जयकुमारस्य मनीषितं यथाभिलषितं कर्तुं यतमाना प्रयत्नशीला छायेव स्वशरीरप्रतिमेवानुवर्तिनी सा सुलोचनापि तस्मिन् विपदं गते पक्षिस्वरूपं प्राप्ते सति शोभनीया खगता पक्षिता यस्माः साऽसौ सुखगता नासीन्न बभूवेति भाष अर्थ-यह अमृत-जल ही विष है, अर्थात् जो अमृत्युका कारण है, वही मृत्युका कारण हो रहा है, इस प्रकार विचार करनेवाले मुझ जयकुमारका हृदय हे भगवन्त जिनेन्द्र ! आपके मतमें प्रख्यात सत् को जो वस्तुता-अस्ति नास्ति रूपता है उसे स्वीकृत करती है। भावार्थ-जिस प्रकार सत्-द्रव्य अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य आदि रूप है, उसी प्रकार जल भी मृत्युद-मृत्युको देने वाला और अमृत्युद-मृत्युको नहीं देने वाला, दोनों रूप है ॥५३॥ __ अर्थ-तदनन्तर जिस प्रकार चकोरी राहु ग्रहके आडम्बरसे ग्रस्त उदित होते हुए चन्द्रमाको देखती है, उसी प्रकार काशीनरेशकी पुत्री सुलोचनाने विनाशकारी जलप्रवाहसे आक्रान्त आते हुए जयकुमारको देखा ।।५४॥ ____ अर्थ-जबकि सुलोचना पतिके वांछित कार्यको करनेके लिये छायाकी तरह उनकी अनुगामिनी रहती थी, तब पतिके विपदं गते सति-पक्षिरूपताको प्राप्त होनेपर वह सुखगता-उत्तम पक्षिरूपताको क्यों नहीं प्राप्त हुई ? ऐसा कहने वाला मनुष्य सुभाषी-सत्यवादी कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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