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विशतितमः सर्गः
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रूपतां कृत्वोपलभ्य सौहार्देनेव किलाम्बु जलं स्ववीचिबाहुमिधृत्वा निजीयल हरिभुजाभिरारभ्याम्बरमाकाशमालिङ्गितु प्रजवाद्वेगादेव याति स्म ॥५०॥
क्षालितेवाम्बुना वीरवरस्यासीत्तु धीरता । विपत्त्रभावमादातुमभ्यवाञ्छत्तु धीरता ॥ ५१ ॥
क्षालितेवेत्यादि - वीरवरस्यापि जयकुमारस्य धीरता सहिष्णुता सा वनाम्बुना क्षालितेवासीत् पिगलिता निर्जगाम तु पुनस्सा तस्यधीर्मतिरेव लता वल्लरी सा विपदस्त्राणभावं विपत्त्रभावमुत बिगतानि पत्राणि यत्र तस्य भावमेवाभ्यवाञ्छत् सहायतावाकोत्स इति । स शुशोच किल ॥५१॥
जगतां जीवनेनापि किमित्यत्र नवारिता ।
समश्च विषमः सूक्तिरित्येषास्ति न वारिता ॥ ५२ ॥
जगतामित्यादि — जगतां सर्वेषां जीवानां जीवनेन सजीवनदायकेनाम्बुनात्र नवो नूतनश्चासावरिश्च तत्ता किमिति कस्मात्कारणादापि प्राप्ता । समश्च विषमः सुहृदपि शत्रुर्भवतीति सूक्तिः सतां वाणी संषाधुना वारिता दूरीकृता नास्ति तावत् ॥ ५२ ॥ हृदालोचयतो मेऽदोऽमृतमेव विषं सतः । वस्तुतां वस्तुतामङ्गीकरोति श्रीजिना अतः ॥५३॥
कि नामकी एकता मानकर जल अपनी लहररूप भुजाओंके द्वारा मानों आकाशका आलिङ्गन करनेके लिये वेगसे ऊपरकी ओर जा रहा था ।
भावार्थ - 'नभोऽम्बुनि वियत्यपि' इस कोशके अनुसार नभस् नाम आकाश और पानी - दोनोंका है, अतः नामकी अपेक्षा एकरूपता मान कर जल अपनी लहररूपी भुजाओंके द्वारा अपने मित्रका आलिङ्गन करनेके लिये ही वेगसे उछल रहा था ॥५०॥
अर्थ - वीरवर जयकुमारकी धीरता - सहिष्णुता मानों पानीसे धुल गई थी, गल कर नष्ट हो गई, परन्तु उनकी धीरता - बुद्धिरूपी लताके विपत्त्रभाव - विपत्तिसे रक्षा करने वाले भावकी इच्छा की थी, अर्थात् उनके मनमें सहायता प्राप्त करनेकी इच्छा उत्पन्न हुई ॥५१॥
अर्थ — उन्होंने विचार किया कि जो जल जगत् के समस्त जीवोंका जीवन है-प्राण रक्षक है, उसने यहाँ नवीन शत्रुता किस कारण प्राप्त कर ली । इस संदर्भ - सत्पुरुषों की जो यह वाणी है कि कभी सम - मित्र भी विषम शत्रु हो जाता है इसका निषेध नहीं किया जा सकता ॥५२॥
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