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९५० जयोदय-महाकाव्यम्
[ ४९-५० पद्मायाः सुलोचनाया ईश्वरं प्राणनाथं पक्षे पद्मानां कमलानामीश्वरं विकासकरत्वात् करिवाहनं हस्तिसमारूढं पक्षे करिवाहनं नाम सूर्यमेवभूतं तिरयितु न्यक्कर्तुमात्तया स्वीकृतया अन्तर्मध्ये तिष्ठति सान्तस्था तया अन्तस्थया पक्षे प्रान्ततिन्या, तिमिरेव लक्षणं यस्यास्तया तिमिलक्षणया पक्षे रलयोरभेदात्तिमिरक्षणयाऽन्धकार एव क्षणो यस्यास्तया तादृश्या वृत्त्योद्वजन्तो ॥४८॥ सिन्धुरमिममित्यथोपकर्तुं धुनदोत्वं किल पुनरुद्धर्तुम् । निम्नगात्वदुर्यशोऽपहर्तुमुच्चचाल साग्रतोऽस्य भर्तुः ॥४९॥
सिन्धुरमित्यादि-सिन्धु समुद्र स्वीकरोति स सिन्धुरस्तमिमं जयकुमारस्य हस्तिनमित्यथोपकतुं प्रेम्णालिङ्गितुमिव। धुनदीत्वमाकाशगङ्गात्वं तज्जगत्प्रसिद्धमात्मनः पुनरुद्धतु किल । निम्नमवनतस्थानं गच्छतीति निम्नगा तस्या भावस्तत्त्वमेव यदुर्यशोवाच्यभावस्तदपहतुमिव सास्य भतु: स्वामिनोऽग्रतः सम्मुखे चचाल ॥४९॥
नभोभिधैकतां कृत्वा धृत्वा स्ववीचिबाहुभिः ।
याति स्मालिङ्गितुं यद्वा प्रजवादम्बु अम्बरम् ॥५०॥ नभ इत्यादि-'नभोऽम्बुनि वियत्यपि' इति तदभिधानमेवाभिधा तत एकतामनन्य
के पति जयकुमारको तिरोहित करनेके लिये स्वीकृत अपनी उस वृत्तिसे, जो कि अन्तस्था-जलके भीतर स्थित थी तथा तिमिक्षलणा-ग्राहरूप थी, सन्ध्याके समान सामने आयी, क्योंकि सन्ध्या भी अन्तस्था-समीपवर्तिनी और तिमिलक्षणा(तिमिरक्षणा) अन्धकारको अवकाश देनेवाली होती है । साथ ही बबूलोंके समान तारोंसे युक्त होती है ।।४८||
अर्थ-हाथीके आगे बड़ी-बड़ी लहरें उठने लगीं। उनसे ऐसा जान पड़ता था कि नदीने विचार किया है कि यह सिन्धुर-हाथी हमारे पति सिन्धु-समुद्रके पास जाने वाला है, उनका स्नेही है, अतः इसका मुझे उपकार करना चाहिये, फिर मैं धुनदी-स्वर्गकी नदी कहलाती हूँ, अतः मुझे अपनी प्रतिष्ठाका उद्धार करना चाहिये, साथ ही लोग मुझे निम्नगा-अवनत स्थानपर जाने वाली कहते हैं, यह मेरी अपकीर्ति है, इसका भी मुझे निराकरण करना चाहिये । यह सब विचार कर ही मानों समुद्रकी स्त्री नदी उसके आगे हो हाथीका उपकार करनेके लिये चल पड़ी हो ।।४९॥
अर्थ-लहरें उठ-उठकर आकाशको छूने लगीं, उससे ऐसा जान पड़ता था
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