SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९४७ ४३-४४ ] विंशतितमः सर्गः लोकज्ञताहेतुतया स्तुतिः पितुरादीयतामत्र किलात्र सापि तु। मत्सी सरस्याश्रयिणी यदृच्छया सा प्रेक्षते साम्प्रतमम्बुपच्छया ॥४२॥ ___ लोकजतेत्यादि-अत्र विवाहविषये प्रकरणे कन्यकायाः पितुः स्तुतिर्जनकस्यानुमति मादीयतां सात्रापि तु पुनरस्त्येव किल। यथा मत्सी सरसि यदृच्छयायिणी स्वरविचरणशीला भवति, सा साम्प्रतमम्बुपृच्छयैव भवति तदतिवर्त्य मनागपि गन्तुं न शक्नोतु तथा हे पुत्रि ! एतेषु सत्सु यं कञ्चिदेकं निजेच्छया वृणीष्वेति पितुराज्ञास्तीति ॥४२॥ विधिरेष विदेहभूजितः विधिराविर्भवतीत्यसावितः । स्वयमस्तु सदेहपूजितः किमु नानन्दसमर्थकोऽभितः ।।४३।। विधिरित्यादि-एष स्वयंवरलक्षणो विधिविदेहभुव्यूजितोऽतिशयेन समाख्यातो विधिरसावित आविर्भवतीति इहापि सदैव पूजितः स्वयमेवास्तु । अयमभित एवानन्दसमर्थकः किमु नास्ति, अविसंवादत्वादपि त्वस्त्येव तावत् ॥४३॥ वसुधामहितस्येति वारिपूरं जयदेवः कन्दवृन्द इव सन्निपीय पीनः पुनरेव । परमध्वनिमानमन्नेवमाबभार शस्य समुदायविधानस्य सम्पदाश्रयः प्रहष्यन् ॥४४॥ वसुधत्यादि-जयदेवः कुमारो वसुधामहितस्य चक्रवतिनोऽथवा वसूनां रत्नानां धाम्ने तेजसे हितस्य समुद्रस्य वारिपूरं वाक्समूहमेव जलसमूहं सन्निपीय श्रुत्वाहृत्य वा संतुष्ट हो वहाँ देना चाहिये, यह सबसे प्रमुख बात है ।। ४११॥ अर्थ-इस विवाहके प्रकरणमें पिताकी अनुमति ली जाती है, सो वह इस स्वयंवर में रहती ही है। मत्सी-मछली सरोवर में स्वेच्छानुसार चलतो अवश्य है, पर वह पानीकी आज्ञासे ही चलती है, उसका उल्लंघन कर नहीं चलती। भावार्थ -हे पुत्रि ! इनमेंसे किसी एकका वरण करो, इस प्रकार पिताकी आज्ञा स्वयंवरमें भी रहती है ॥४२।। अर्थ-यह स्वयंवरकी विधि विदेहभूमिमें अत्यधिक प्रसिद्ध है, अब यह यहाँ प्रकट हो रही है । यह यहाँ सदा ही पूजित रहे, चालू रहे तो क्या सब ओर आनन्दकी समर्थक नहीं होगी ? अवश्य होगी ।।४३।। अर्थ-जिस प्रकार वसुधामहित-समुद्रके वारिपूर-जलसमूहको अच्छी तरह पीकर-ग्रहणकर कन्दवृन्द-मेघसमूह पीन-स्थूल होजाता है और शस्यसमूह-धान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy