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जयोदय- महाकाव्यम्
अथ श्रुतिप्रान्तकृताधिकारा समन्ततो भूमण्डलेऽलंकृतिरक्षमाला मुखे तु
भद्र ! वाराणसीशेन तस्यामेष कज्जलवच्छ्यामलोऽपि दृश्यते
[ ३८--४१
रूपनिरुक्तिसारा |
दृग्वद्यदुदेति बाला ||३८|| नियोजितः । सज्जनैरितः ||३९||
वीटिकया परिधृतः पलाशः केतक्याः कलितः किल काशः । आद्रियतां महतापि तथा स बालयानुकलितो नरपाशः ॥४०॥ ( नातिक्लिष्टा एते श्लोकाः, अतो न व्याख्याताः ) लोकत्रयांतित्रगुणिताद्बहुमूल्यमेतत्
स्वं जीवनं यदि ददीत महाशयेतः । सुवेश
दृग्देशितेषु परिवृत्तियात
संवेश एष खलु मुख्यतमोऽस्तु लेशः ॥४१॥ लोकत्रयादित्यादि - हे महाशय ! त्रिगुणितात् सत्वरजस्तमांसोति समितादुत त्रिगुणीकृतात् लोकत्रयात् अधोमध्योर्ध्व भेदविभक्तादेतस्माद्बहुमूल्यमेतत् स्वं जीवनं यदि ददीत तदा दृग्देशितेषु दृष्टिपथमितेषु सम्यगवलोकितेषु परिवृत्तितया समाधानभावेनासूनां प्राणानां दशेति संख्यातानां देशस्य स्थानस्य मनस्कारस्य संवेशः सन्तर्पणमितो यत्र 'भवेत्तत्रैव ददीत । एष खलु मुख्यतमो लेशोऽस्तु ॥४१॥
अर्थ - जिस प्रकार जगत्को आह्लादित करने वाले एवं अमलतास्वच्छताके धारक चन्द्रमामें काला कलङ्क विद्यमान है, उसी प्रकार जगत्को प्रमुदित करनेवाले एवं अमरता - स्थायित्व अथवा उज्ज्वलताको धारण करने वाले हमारे कुलमें यह अपयशका धारी अर्ककीर्ति विद्यमान है || ३७ ॥
अर्थ - जिसका सुयश कानोंसे सुना है, सब ओर जिसके सौन्दर्यकी चर्चा है, जो पृथिवीमण्डलका अलंकार है तथा मुखमें नेत्रके समान जिसकी शोभा है, ऐसी यह अक्षमाला है ||३८||
अर्थ - भद्र! अकम्पन महाराजने उसी अक्षमाला के साथ अर्ककीर्तिका संयोग कराया है । उसके साथ यह कज्जलकी तरह सज्जनों द्वारा देखा जाता है ||३९|| अर्थ - जिस प्रकार केतकीका पत्र काशसे बाँधा जाता है और इसके साथ वह काश भी प्रतिष्ठाको प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकारका अक्षमालाकी संगति अर्ककीर्ति भी प्रतिष्ठाको प्राप्त कर रहा है ||४०||
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अर्थ - हे महाशय ! तीनों लोकोंसे बहुमूल्य अपना यह जीवन यदि दिया जावे, तो दृष्टिके द्वारा अच्छी तरह देखे हुए पदार्थों में विचार कर मन जहाँ
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