________________
३५-३७ ]
विंशतितमः सर्गः
९४५
fraft शोचनीयं नास्ति । इन्दुनियोगिनों चन्द्रस्येव समागमनयोग्यां निशं रात्रि बुभुक्षोः वे रात्रिसमभिमुखं गन्तुमुद्यतस्य सूर्यस्य पतनं किन्न भवति ? अहो मुमुक्षो ! भवत्येव किल ॥ ३४ ॥
विमृश्य कर्त्रेदमकम्पनेन संयोज्य नूनं किमकार्यनेनः ? | अर्केण बालामतिकर्कशेन कि मल्लिमालान्वयते कुशेन ॥ ३५ ॥ विमृश्येत्यादि - हे अनेनो निष्पाप ! महाशय जयकुमार ! विमृश्य कर्त्रा विचार्य - कारिणा तेनाकम्पनेन महाराजेन नूनमिह बालामक्षमालामर्केण नामार्ककीर्तिना सार्धं संयोज्य किमकारि ? अनुचितमेव कृतं तेनेदं तावत् । अतिकर्कशेनापि कुशेन दर्भेण कि मल्लिमाला जातिकुसुमस्रग् अन्वयते सम्बद्धघतेऽपि तु नैव ॥३५॥
जगदुद्योतनहेतोवंशान्न
उदेत्ययं समरसेतो 1
दीपात् स्नेहधारात् कज्जलवन्मलिनतम आरात् ॥३६॥ जगदाह्रादनकारिणि कुले किलास्माकममरेताधारिणि । शशिनि कलङ्क इवायं प्रवर्तते षट्पवच्छायः ॥ ३७॥
इसमें कुछ भी शोचनीय नहीं है । हे मुमुक्षो ! चन्द्रमाकी नियोगिनी रात्रिका उपभोग करनेके इच्छुक सूर्यका क्या पतन नहीं होता ? अवश्य होता है |
भावार्थ- जब सूर्य सायंकाल चन्द्रमाकी नियागिनो रात्रिके सन्मुख होता है, तब उसका पतन जिस प्रकार नियमसे होता है, उसी प्रकार दूसरेकी उपभोग्य स्त्रीकी आकांक्षा करनेवाले मनुष्यका पतन नियमसे होता है || ३४॥
अर्थ - हे निष्पाप ! विचार कर कार्य करने वाले अकम्पन महाराजने अपनी द्वितीय पुत्री अक्षमालाका अर्ककीर्ति के साथ विवाह कर क्या किया ? उचित नहीं किया। क्या अत्यन्त कठोर डाभके द्वारा मालतीकी माला गूंथी जाती है ? अर्थात् नहीं ||३५||
अर्थ - हे युद्ध की मर्यादाके रक्षक जयकुमार ! जिस प्रकार जगत्को प्रकाशित करने वाले तथा स्नेह-तैलके आधारभूत दीपकसे कज्जल उत्पन्न होता है, उसी प्रकार जगत्को प्रकाशित करने वाले एवं स्नेह-प्रीति के आधारभूत हमारे वंश से यह अत्यन्त मलिन अर्ककीर्ति अभी उत्पन्न हुआ है || ३६ ||
१. नोऽस्माकम् । २. स्नेहस्तैलं प्रीतिश्च ।
३. रलयोरभेदादमलताधारिणि, अमरता स्थायिता तस्या धारिणि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org