SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०-३१] विंशतितमः सर्गः ९४३ कारणात् संभाव्यताम् किन्तु मादृशा नवयुवका अपि नवीनां काशीराजसुता समिताः संप्राप्ताः सन्तोऽथित्वत: परवशाः 'अर्थो दोषं न पश्यति' इति नीतिमाश्रिता दृशा विहीना विबभुरित्येतच्चित्रमेव ॥२९॥ लताकृते जगति सौधगणग्रहीति यद्वौतुपोतपुरतोऽमृतजातवीतिः । स्वायं वरीति खलु रीतिरियं प्रतीति ___मायाति भो भरतभूभृदनर्थनीतिः ॥३०॥ लूताकृत इत्यादि-भो भरतभूभृत् ! जगत्यस्मिन् लोके लूताकृते मर्कटिकार्थ सौधगणस्य प्रासादपरम्पराया ग्रहीतिरवाप्तिर्यद्वा पुनरोतुपोतस्य विडालजातस्य पुरतोऽग्रेऽमृतजातवोतिदुग्धोत्थितभोजनसत्ता यथा भवति, तथा खल्वियं स्वायंवरी रीतिरनर्थस्य नीतिविप्लवकरी चेष्टा प्रतीतिमायाति ॥३०॥ सदधिपवदनेन्दोर्गोचरोच्चारणेन ___ जयहृदयपयोधिः साम्प्रतं कारणेन । सुतरलतरवीचिप्रोज्जजम्भे किलेति ध्वनिरपि च तदुत्थः स्मेत्युदारो निरेति ॥३१॥ सदधिपेत्यादि-सदधिपस्य चक्रवतिनो वदनरूपो योऽसाविन्दुस्तस्य 'नयनतारक' इत्यादि गोचरमुच्चारणं तेन स्पष्टसम्भाषणेन कारणेन साम्प्रतमधुना जयस्य हृदय बुढ़ापेके कारण अथवा अन्य किसी कारणसे संभव हो सकती है, किन्तु हमारे जैसे नवयुवक भी काशीराजसुताको प्राप्त हो स्वार्थसे परवश होते हुए दृष्टिसद्विचारसे विहीन हो गये, यह आश्चर्यकी ही बात है ।।२९|| ____ अर्थ हे भरत महाराज ! जिस प्रकार मकड़ीके लिये महलोंके समूहका निर्माण करना अथवा विलावके बच्चेके आगे दूध निर्मित भोजनका रखना अनावश्यक और असुरक्षित कार्य है, उसी प्रकार यह स्वयंवरकी रीति भी सचमुच ही अनावश्यक और अनर्थकरी नीति है, यह बात प्रतीतिमें आती है ॥३०॥ अर्थ-चक्रवर्तीके मुखरूपी चन्द्रसे निःसृत 'तुम मेरे नयनोंके तारे हो' इत्यादि वचनोंके उच्चारणरूप कारणसे जयकुमारका हृदय रूप सागर अन्यन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy