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________________ ९४० जयोदय-महाकाव्यम् [२४-२५ राजसुतायामुत स्वल्पपरिमाणायां गोरोचनायां लोलुपतामत्यजिष्यं त्यक्तवानभविष्यं तहि पुनः कहि कदाचिदपि एतां महती वृद्धि गतां सुरभैः सत्कीर्त्या उत धेनोः क्षति समगमिष्यं किं ? किन्तु नैव संवजिष्यम् ॥२३॥ अहमेवमनर्थकद्भवेऽयं भवदुक्तस्य समर्थको भवेयम् । दिवसेन च नक्तसङ्गमः स्यादपि गम्भीरतमा यतः समस्या |॥२४॥ अहमित्यादि-अहमयमनर्थकृद् विप्लवकारको भूत्वाऽस्मिन्भवेऽपि भवदुक्तस्य नयनतारक इत्यादेरेवमुक्तरूपेणैव समर्थको भवेयम् । अथवा हे समर्थ ! भवदुक्तस्यानर्थकृत् किलार्थकारको न भूत्वा तव को भवेयम् ? कोऽपि न भवेयमननुकूलत्वादुत विच्छेदभागेव भवेयम् । यतो हि दिवसे सूर्योदयावसरे नक्तसंगमो न स्याद्रात्रिसमुद्गमः, यतो रात्री गम्भीरं तमोऽन्धकारो यत्रैवं गम्भीरतमा समस्यापि स्यात् । यद्वा हे देव ! दिवसेन च सह नक्तसङ्गमोऽसौ स्यादपि किमिति गम्भीरतमा समस्या ॥२४॥ यतश्च भूतले स्वदणजात आक्रमः कृतः कृतघ्नभावतो महीमहार्क मय्युदाहृतः । हृतश्च सम्भविष्यतीन्दुवन्न कालिमावत: बत प्रयत्नतः कलङ्क एव मत्त आगतः ॥२५॥ सुरोचना-अकम्पन राजाकी पुत्री सुलोचनामें (पक्षमें गायके पित्तमें) लोलुपताप्राप्त करनेकी उत्कट अभिलाषाको छोड़ देता, तो सुरभि-कोति (पक्षमें गायकी) इस बहुत बड़ी क्षति-हानिको क्या कभी प्राप्त होता ? अर्थात् नहीं। भावार्थ-सुन्दरी सुलोचनाको प्राप्त करनेका तीव्र लालसासे ही 'जयकुमारने चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककोतिके साथ विवाद किया' इस तरह मेरी कीर्तिकी बहुत भारी क्षति हुई है। अर्थान्तरमें-गोरोचनाकी प्राप्ति गायकी मृत्युसे ही सम्भव है, यदि किसीको जरा सी गोरोचनाको प्राप्त करनेकी लालसा न हो, तो गायकी मृत्यु कब हो, अर्थात् कभी नहीं ॥२३॥ __ अर्थ-यह मैं ही इस भवमें अनर्थकृत्-विप्लवको करने वाला होऊँ और मैं ही आपके द्वारा प्रयुक्त स्वप्रशंसाका समर्थक होऊँ, यह तो दिनके साथ रात्रिका समागम होनेके समान गम्भीर समस्या है-विचारणीय बात है। क्योंकि दिन प्रकाशमान होता है और रात्रि उससे विपरीत गम्भीरतमा-सघन अन्धकार वाली होती है। अथवा हे समर्थ ! जबकि मैं आपके कथनसे विपरीत कार्य करने वाला हूँ, तब आपका को भवेयं-कौन हो सकता हूँ, अर्थात् कोई नहीं ॥२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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