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________________ २१-२३] विंशतितमः सर्गः तारकवदस्मि मलिनः सदसि समस्तार्थदृशि नितान्तमिन ! । तव सुदुगनुकारिण्यां प्रान्तेष्वनुरागधारिण्याम् ||२१|| तारकवदित्यादि - हे इन ! स्वामिन् ! सूर्य वा ! तव सुदृशमनुकरोति तस्यां ते दृष्टितुल्यायां प्रान्तेषु मध्ययुक्त संयुक्तादिप्रदेशेषु अनुरागधारिण्यां स्नेहवत्यां तथा प्रान्तेषु पर्यन्तभागेषु लालिमानमधिगच्छन्त्यां समस्तार्थदृशि सर्व पदार्थावलोककारिण्यां सदसि सभायामहमधुना तारक इव नितान्तं मलिन एवास्मि त्वया नयनतारक ! इति सूक्तमेव ॥ २१ ॥ मृदुहृदा विवदंस्तव सूनुना सखिशिरोमणिनापि विभोऽमुना । तनुतमस्वरसार्थमहंतु तत्परमबन्धुरिहास्मि किल स्तुतः ॥२२॥ मृदुहृदेत्यादि - हे विभो ! सखिशिरोमणिनाऽपि तव सूनुना मुदुहृदा भद्रचित्तेनामुनाकं कोर्तिना सार्धं तनुतमस्वरतार्थं किञ्चित्स्वार्थपूतिकरणार्थं विवदन् विवादं कुर्वन्नहं किलावयमिह यस्त्वया स्तुतः स परमत्यन्तमबन्धुर्न, किन्तु परमश्चासौ बन्धुश्चेति परमबन्धुरस्मीति ॥२२॥ ९.३९ Jain Education International सुतनौ सुरोचनायां लोलुपतामत्यजिष्यमथ तर्हि । कि समगमिष्यमेतां महतीं सुरभेः क्षति कहि ||२३|| सुतनावित्यादि- ६ - अथवा यदि चेदहं सुतनौ सुरोचनायां शोभनरूपायामकम्पन अर्थ - हे महाराज ! यह सभा आपकी दृष्टि के तुल्य है, क्योंकि जिस प्रकार आपकी दृष्टि समस्तार्थ दृक्- समस्तपदार्थो को देखने वाली है, उसी प्रकार यह सभा भी समस्तार्थदृक-सबके प्रयोजनोंको देखने वाली है, अर्थात् इसमें सबके प्रकरणों पर समीक्षाकी जाती है और जिस प्रकार आपकी दृष्टि प्रान्त भागोंनेत्रकोणों में अनुरागधारिणी है, लालिमाको धारण करती है, उसी प्रकार यह सभा भी सब प्रकरणों के अन्त में अनुराग -स्नेहको धारण करती है । ऐसी इस सभामें हे स्वामिन्! आप इन-सूर्य सदृश हैं और मैं तारक- तारेके समान अत्यन्त मलिन - हीनप्रभ हूँ । अब: आपने जो मुझे नयनतारक शब्द से सम्बोधित किया है, वह उचित ही है ॥ २१ ॥ अर्थ - हे विभो ! आपके भद्रपरिणामी पुत्र अर्ककीर्ति के साथ, जो कि मेरे मित्रोमें शिरोमणिस्वरूप है, मैंने अल्पतम स्वार्थके लिये विवाद किया, फिर भी आपने मेरी प्रशंसा की, इससे मैं उनका परम अबन्धु - अतिशत्रु नहीं हूँ, किन्तु परमबन्धु श्रेष्ठ बन्धु हूँ ||२२|| अर्थ - यदि मैं सुतनु- सुन्दर शरीर वाली ( पक्ष में अल्प परिमाण वाली ) ६२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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