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जयोदय-महाकाव्यम्
[१० मिव शोभमानमाददे दृक्पथगतं चकार। स च भरतनाम महाराज : स्वस्य मृदुरश्मिभिनेत्रवीक्षणः कोमलैः किरणैरिव तमोऽभिभिन् भवन् दुःखोच्छेदकरः सन् को पृथिव्यां मुदः स्थिति प्रसन्नतामथवा कौमुदस्य कुमुदसमूहस्य स्थिति वर्द्धयन् तमपि जयकुमार किमिति नहि अनुसमग्रहीत् किन्त्वनुग्रहं चकारैवेतीद्धा परिस्थितिः प्रशस्ता व्यवस्था पम्बभौ ॥८-९॥
भालं जयस्य नमदादिमचक्रपाणे:
पादाग्रतस्तु समभादिह तत्प्रमाणे । नित्यं विभावमयदोषविशोधनाय
पङ्केरुहस्य पुरतः शशिनोऽभ्युपायः ॥१०॥ भालमित्यादि-इह चक्रपाणेः पादाग्रतो नमत् प्रणाणं कुर्वद् जयस्य भालं तु पुनः समभात् शोभा बभार । तत्प्रमाणे तस्योपमाविषये नित्यं सर्वदैव विभावमयदोषविशोधनाय विरोधपरिहरणाय पङ्करहस्य पुरतः शशिनोऽभ्युपायो भवतीति । चक्रवतिपादो कमलोपमौ प्रसन्नौ, जयकुमारस्य मुखं चन्द्रतुल्यमिति यावत् ॥१०॥
हितमें तरलित-उत्कण्ठित जयकुमारने भी सदनुमानित-सभ्य जनोंसे परिपूर्ण एवं उज्ज्वल-पवित्र सभास्थानमें अतिशय आनन्दकारी भरत महाराजको नयनगोचर किया और अपनी कोमल किरणों-पुलकित नयनोंसे देखना, मन्द मुसक्यान तथा मधुर भाषण आदिके द्वारा, अर्ककोतिके पराजयसे कहीं महाराज कुपित तो नहीं हैं, इस प्रकारके संशयरूपी तिमिरको नष्ट करने वाले एवं कौ मुदः स्थिति-पृथिवीपर प्रसन्नताकी स्थितिको बढ़ाते हुए भरत महाराजने क्या जयकुमारको अनुगृहीत नहीं किया था ? अवश्य किया था । इस तरह जयकुमार और भरतके मिलनेकी वह परिस्थिति अत्यन्त सुशोभित हो रही थी ।।८-९॥
अर्थ-आदिचक्रवर्तीके चरणोंके आगे नमन करता हुआ जयकुमारका ललाट ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानों अपने सदातन विरोधको दूर करनेके लिये कमलोंके आगे चन्द्रमाका ही उद्यम हो रहा हो ।
भावार्थ-चन्द्रमाके उदयमें कमल निमीलित हो जाते हैं। इसका तात्पर्य हुआ कि कमल और चन्द्रमाका यह सनातन वैर है । चन्द्रमाने इस वैरको दूर करनेके लिये नम्रीभूत होकर कमलसे क्षमा याचना की। चक्रवर्तीके पाद कमल थे और जयकुमारका भाल चन्द्रमा ॥१०॥
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