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विंशतितमः सर्गः
कर्तृसमुदायस्य पक्षे जलपक्षिवृन्दस्य कलकलितं यस्यां तस्यां कल्लोलेन विनोदेनोत तरङ्गणाञ्चिता विरुदवक्तारश्चारणा उत मीनादयो वारिचरा जन्तवो यस्यां तस्याम्, मध्ये तिष्ठति राजहंसो भरतभूपतिरुत मरालो यस्यां तस्याम्, कुशस्य जलस्त्र लक्षणपरिणामेन सन्धारणकारणेन हितं यद्वा कुशलस्य क्षणः समयस्तस्य परिणामेन मनस्कारेण हितं यस्यां तस्यां यद्वा मधुरसेन मकरन्देन कृत्वा समुन्नतैस्तैर्नलैः कमलमहितायाम् ॥७॥ सदनुमानिते तरलितो हिते परिषदास्पदे भरतमाददे । यदिव खजनः परमरउजनमथ नभस्तले शशिनमुज्ज्वले ॥८॥ अनुसमग्रहीत्तमपि किन्नहि स च तमोऽभिमित् स्वमूदुरश्मिभिः। कौमुदस्थिति वर्द्धयन्निति सम्बभावतीद्धा परिस्थितिः ॥९॥
सदनुमानित इत्यादि-अथ यदिव खजनश्चकोरस्तदिव जयकुमारो हिते तरलितः सन्नात्मसमायोगे सन्नद्धो भवन्, सद्भिः सभ्यरुत च तारकैरनुमानिते उज्ज्वले पवित्रप्राये परिषदास्पदे सभासदने परमरञ्जनं परमाह्लादकरं भरतं नाम महाराजं शशिन
कुशलक्षणपरिणामहिता-कुशल-मङ्गलके समय सम्बन्धी परिणामसे हितकारी थी, अर्थात् सभासद परस्पर कुशल-क्षेम पूछते थे। जिस प्रकार सरसीके मध्यमें राजहंस-पक्षी स्थित होता है, उसी प्रकार सभाके मध्य में भरत चक्रवर्ती नामक श्रेष्ठ राजा स्थित थे। जिस प्रकार सरसी कविकुलकलकलिता-जलपक्षियोंके समूहकी कलकल ध्वनिसे सहित होती है, उसी प्रकार सभा भी कविकुलकलकलिता-कवियोंके समूहकी रम्य ध्वनिसे सहित थी। जिस प्रकार सरसो कल्लोलाञ्चितवारिचरा-लहरोंमें क्रीडा करते हुए जलचर जीवोंसे सहित होती है, उसी तरह सभा भी विनोदपूर्ण विरुद गान करने वाले चारणोंसे सहित थी और जिस प्रकार सरसी नमिता-अपरिमित-विस्तृत होती है, उसी प्रकार सभा भी नमिता-सभ्य जनोंसे नमस्कृत थी ॥६-७॥ ___ अर्थ-जिस प्रकार स्वकीय हितमें उत्सुक चकोर सदनुमानित-नक्षत्रोंसे सुशोभित उज्ज्वल आकाश तलमें परमालादकारी चन्द्रमाको नयनगोचर करता है-प्रेम भरी दृष्टि से देखता है और अपनी कोमल किरणोंसे अन्धकारको नष्ट करता तथा कुमुदसमूहकी विकास रूप स्थितिको वृद्धिंगत करता हुआ चन्द्रमा उस चकोरको अनुगृहीत करता है, अपनी निर्मल चांदनीसे प्रसन्न करता है और उस समयकी वह स्थिति अत्यन्त सुशोभित होती है। उसी तरह हिने-आत्म
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