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९३२ जयोदय-महाकाव्यम्
[५-७ विवहनार्थ पश्यतालोचकेनापि पुनः क्षिती महती बहुविष्कम्भवतीमुताधिकवयस्कामनुजानता जयेन ॥ ४॥
उच्चस्तनकुम्भबलाच्छकलाभ्युदिताब्वसंकुला नवला । कामितयेवाभिसृता प्रासादततिस्तु तेन तता ॥५॥ उच्चैरित्यादि-उच्चस्तनस्यात्युन्नतस्य कुम्भस्य शिरसि निहितस्य बलात्प्रभावात् शकलं खण्डतां नीतमित्यभ्युवितैर्दिरैरितस्ततः संकुला व्याप्ता शृङ्गस्थकलशसंघट्टनतो भिन्नीभूतजलदलवरलङ्कृता तथैवोच्चस्तन एवोन्नतकुच एव कुम्भस्तस्य बलं प्रभावो यस्याः सोच्चस्तनकुम्भबला, अत एवाच्छकलाभिश्चन्द्रमसो वृद्धिरूपाभिरभ्युवितैरब्दैः संवत्सरैः संकुला षोडशवर्षवयस्का प्रासादततिहhपंक्तिर्नवला नवीनाङ्गनेव सा. तेन सता कामितयेव किलाभिसता सम्पर्कमवाप्ता ॥ ५॥ मधुरसमुन्नतनरमहितायां कुशलक्षणपरिणामहितायाम् । अथ मध्यस्थराजहंसायां वात इवायातः स सभायाम् ॥६॥ सरसीवरसिद्धान्तमितायां सुतरां कविकुलकलकलितायाम् ।। कल्लोलाचितवारिचरायां शुशुभे चाशु शुभेन मितायाम् ॥७॥
मधुरेत्यादि-स जयकुमारोऽथ पुनर्वात इन विचरन् सभायामायातः शुशुभे । कोदृश्याम् ? सरस्या वरेण सिद्धान्तेन मितायां पुष्करिणीतुल्यायो यतः कविकुलस्य काव्य
जाना था, जो अनेक उत्तानशय-छोटे बच्चोंसे सहित है, विश्वास करने में तत्पर है, हितकारी है तथा अत्यधिक प्रेम प्रदर्शित करनेके लिये उद्यत है ।। ४ ।। ___अयोध्याके भवनोंकी उस पंक्तिको जो उत्तुङ्गशिखर पर स्थित कलशोंके संघट्टनसे खण्ड खण्ड हुए अब्दों-मेघोंसे सहित थी, एक नई नवेली स्त्रीके समान कामुक दृष्टिसे प्राप्त किया था, क्योंकि नई नवेली स्त्री भी उन्नत स्तनरूफ कलशोंसे सहित थी और चन्द्रमाकी निर्मल कलाओंसे प्रकट होने वाले अब्दोंसोलह वर्षोंसे युक्त थी, अर्थात् वयस्क थी ।। ५ ॥
अर्थ-तदनन्तर जयकुमार वायुकी तरह घूमते हुए उस सभामें आकर शीघ्र ही सुशोभित होने लगे, जो कि पुष्करिणी-सरसीके समान थी, क्योंकि जिस प्रकार सरसी मधुरसमुन्नतनरमहिता-मनोहर तथा ऊंचे नल-कमलोंसे महितसन्मानित होती है, उसी तरह सभा भी मनोहर तथा उत्कृष्ट नर-मनुष्योंसे महित सम्मानित थी। जिस प्रकार सरसी कुशलक्षणपरिणामहिता-जलके परिणमनसे हितकारी थी, अर्थात् अगाध पानीसे परिपूर्ण थी, उसी तरह सभा भी
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