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३-४] विंशतितमः सर्गः
९३१ मत एव बहुधावलिधारिणों लहरियुक्तां भूरिवलिवद्धशरोरां वा स्त्रवन्ती नदी जरतीति 'नाम्ना बोध्यां संज्ञाता तमुल्लध्य तामयोध्या नाम नगरी निम्नवर्णनायुक्तां जगाम ॥२॥
स्वमुपपयोधरदेशं चलदुज्ज्वलध्वजनिवसनविशेषम् । अपयेव वोन्नयन्तीं श्रियाखिलं विश्वमपि जयन्तीम् ।।३।। स्वमित्यादि-पयोधरदेशस्य वारदलस्योत स्तनमण्डलस्य समीपमुपपयोधरदेशं चलत् प्रस्खल वायुना यदुज्ज्वलं च तत् ध्वजस्य निवसनं वस्त्रं तस्य विशेषं त्रपयेव लज्जानुभावेन किलोन्नमन्तीमुत्सारयन्तीमेवं श्रिया शोभयाखिलं विश्वमपि पुनर्जयन्ती जगामेति पूर्ववृत्ते ॥३॥
प्रणयातिशयाय पश्यताथ बहूत्तावशयोपलक्षिताम् ।
महतीमनुजानता क्षितावपि विश्रम्भपरायणां हिताम् ॥ ४॥ प्रणयेत्यादि-बहुभिरुत्तानशयैस्तनयरुपलक्षिता युक्ता तां बहुबालवतीमिति । तथा स्वागतार्थ जयोस्त्वेवमुच्चारणपुरस्सरमुत्ताना उत्तानीकृताः शया हस्ता यस्तैर्बहुभिरुपलक्षिताम् । विश्रम्भे नम्रतायामुत क्रीडाकलहे परायणाम, विश्रम्भः केलिकलहे विश्वासे प्रणये वर्धे' इति विश्वलोचनः । तामेतामयोध्यां प्रणयातिशयाय सन्मार्गातिशयार्थमुत
जिस प्रकार वृद्धा स्त्री बहुधा वलिधारिणी-अनेक झरियोंको धारण करती है, उसी प्रकार वह नदी भी अनेक आवलि-लहरोंको धारण करने वाली थी और वृद्धा स्त्री जिस प्रकार नीरदभाव-दन्तरहित अवस्थाको धारण करती है, उसी प्रकार वह नदी भी नीरदभाव-जल देनेकी स्थितिको धारण कर रही थी ॥ २॥ ___अर्थ-वह नगरी पयोधरमण्डल-मेघमण्डलके पास फहराती हुई ध्वजाके वस्त्रको वायुसे ऊपरको उत्सारित करती थी । इससे ऐसी जान पड़ती थी जैसे कोई स्त्री लज्जावश अपने पयोधर-स्तनमण्डलके समीपके वस्त्रको उत्सारित करती रहती है । साथ ही वह नगरी अपनी शोभासे समस्त विश्वको जीत रहो थी ।। ३॥
अर्थ-उस अयोध्याको जयकुमारने ऐसा जाना कि वह प्रणयातिशयबहुत भारी प्रेम प्रदर्शित करनेके लिये ऊपर उठाये हुए अनेक चित्त हाथोंसे सहित है, महान् है, विश्रम्भ-नम्रता दिखानेमें तत्पर है तथा पृथिवो पर मेरा हित करने वाली है । अथवा जयकुमारने अयोध्याको उस श्रेष्ठ स्त्रीके समान
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