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विंशतितमः सर्गः
जगदाह्लादकरं राजानं बिनियम्याथ तपननामानम् । अभ्युदयन्तमसहमान इव राजराजमभिययौ स पदिवत् ॥१॥ जगदित्यादि-अथ प्रभातवन्दनानन्तरं पुनः स जयकुमारो जगतामाह्लादकर राजानं नीतिमन्तं चन्द्रमसं वा विनियम्य पराजितं कृत्वाऽभ्युदयन्तं स्वतन्त्रतामाप्नुवन्त. मुद्गच्छन्तं वा तपननामानमितरमिदमसहमान इव किल पविवत् प्रार्थनाकारको भूत्वा राज्ञां राजानं चक्रिणं भरतभूपालमभिययौ । अकम्पनभूपालस्यावहेलनाकारकं तमर्ककोतिमसहमानस्तदुदन्तस्य स्पष्टीकरणप्रकारेणात्मसात्करणार्थ भरतस्याग्ने गतवानिति वा ॥१॥ बहुधावलिधारिणी स्रवन्ती नितरां नीरदभावमाश्रयन्तीम् । जयराड् जरतीतिनामबोध्यां द्रुतमुल्लङ्घ्य जगाम तामयोध्याम् ॥२॥
बहुधेत्यादि--नितरामतितरां नीरदभावं जलदानत्वमुत रवरहितत्वमाश्रयन्ती
अर्थ-प्रभात वन्दनाके बाद वह जयकुमार जगत्को आनन्दित करने वाले नीतिमान् राजा अथवा चन्द्रमाको पराजित कर अभ्युदयको प्राप्त होने वाले तपन नामक राजा अथवा सूर्यको सहन न करते हुए प्रार्थीकी तरह राजाधिराज चक्रवर्ती भरतके पास गये।
भावार्थ-सुलोचनाके स्वयंवरमें भरत चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककोतिने न्याय प्रिय राजा अकम्पनकी अवहेलना कर जयकुमारके साथ युद्ध किया था। जयकुमारने अर्ककीर्तिको परास्त कर सुलोचनाके साथ विवाह किया था। अर्ककीर्तिके परास्त होनेसे चक्रवर्ती भरतकी क्या मनःस्थिति है, यह जानने तथा अर्ककीर्तिकी उच्छृङ्खलताको स्पष्ट करनेके लिये जयकुमार अयोध्यामें विद्यमान भरतके पास गये । अथवा न्यायनोतिकी अवहेलना कर प्रजा पर आतंक फैलाने वाले राजाकी शिकायत करनेके लिये जैसे कोई छोटा राजा बड़े राजाके पास जाता है, वैसे ही जयकुमार अर्ककीतिकी उद्दण्डता प्रकट करनेके लिये भरत चक्रवर्तीके पास गये।
अर्थ-राजा जयकुमार भरती नामकी उस नदीको जो सचमुच ही जरती-वृद्धा स्त्रीके समान जान पड़ती थी, शीघ्र ही उलांघ कर अयोध्या गये।
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