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________________ ९२८ जयोदय-महाकाव्यम् [९३-९४ तस्य पुनरन्ते भवोऽन्त्यः प्रान्तभागे वर्तमानो जकारो यस्य तस्यान्त्यजस्यार्थावजस्य नाम परमात्मनोऽनुभावुको भवन् कुलीनतामुच्चाचारतयोच्चकुलतामुपालम्ब्य समवाप्य सुखं गच्छतोति सुखगस्तस्य भावः सुखगत्वं तदधिष्ठितः सम्भवेदिति यावत ॥ ९२ ॥ अपादानविहीनोऽपि भवेत् कामितवृत्तिमान् । उपसर्गानजानानो विप्रादिप्रतिपत्तिमान् ॥९३॥ अपादानेत्यादि-व्याकरणविहितादपदानकारकाद्विहीनो रहितोऽपि का नाम पञ्चमी विभक्तिमिता प्राप्ता या वृत्तिस्तद्वान् भवेदिति विरोधे सति, अपादानं नाम कुत्सितजीवनं तस्माद्विहीनो रहितः सन् कामितेषु वाञ्छितेषु भोगोपभोगेषु या वृत्तिः प्रवृत्तिस्तद्वान् भवेदिति परिहारः। तथा व्याकरणनिर्दिष्टानुपसर्गान् धातूपपदानजानानोऽननुकुर्वाणोऽपि विश्च प्रश्वेत्येवमादिर्येषां तेषां स्वनिर्घाङित्यादीनां प्रतिपत्तिमान् ज्ञानवान् भवेदिदिति विरोधे सति, उपसर्गानुपद्रवानजानानः कदाचिदप्यलभमानः सन् विप्रादिषु ब्राह्मणादिषु वर्णेषु प्रतिपत्तिः प्रतिज्ञा तद्वान् भवेदिति परिहारः ॥९३॥ सदाचारविहीनोऽपि सदाचारपरायणः । सञ्जायेतामिहेदानी रुजा होनो नरः सरुक ॥९४॥ सदाचारेत्यादि-इहेदानों नरो मनुष्यः सदाचारेण विहीनो रहितोऽपि सदाचार परायणस्तत्पर इति विरोधे सति सदा सर्वदा चारेण परिभ्रमणेन विहीनः सन् सदाचारे अक्षर प्रथम और जकार नामका वर्ण अन्तिम इस तरह अज शब्द निष्पन्न हुआ। यह अज-परमात्मा या परब्रह्मका वाचक है, इसका अनुभावुक होता हुआ कुलोनता-उच्चकुलताका आलम्बन प्राप्तकर मनुष्य शीघ्र ही सुखगत्वसुखको प्राप्त करने वाला हो ।।२२।। अर्थ-जो व्याकरण प्रसिद्ध अपादान कारकसे रहित होता हुआ भी पञ्चमी विभक्तिको प्राप्त वृत्तिसे सहित था तथा जो उपसर्गो-धातुके पूर्वमें लगने वाले उपपदोंको न जानता हुआ भी वि, प्र आदि के ज्ञानसे युक्त था, ये दोनों विरोध हैं, इनका परिहार इस प्रकार है कि जो अपादान-कुत्सित आजीविकासे रहित होकर कामित-इच्छित भोगोपभोगकी प्रवृत्तिसे सहित था तथा उपसर्गों-उपद्रवोंको न जानता हुआ ब्राह्मणादि वर्गों के विषयमें की गई प्रतिज्ञासे सहित था, अर्थात् सभी वर्गों का यथायोग्य संरक्षण करता था ||९३।। ___अर्थ-इस भारत वर्ष में इस समय मनुष्य सदाचार-सम्यगाचरणसे रहित होकर भी सदाचारपरायण-सम्यगाचरणमें तत्पर हो, यह विरोध है । सदाचार विहीन-नित्य ही परिभ्रमणसे रहित होता हुआ सदाचारपरायण-समीचीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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