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________________ ९१-९२] एकोनविंशः सर्गः ९२७ तथा नेतिवागपि कृती कार्यक्रम सेतिवाक् स्यादिति विरोधे न भवतीतेर्बाधाया वागपि यस्यां सा भवती, इति वाचा सहिता सेतिवाक् निर्विघ्नतया कार्यपूतिमती स्यात्, अथवा सेतिवागिति कर्तव्यतायुक्ता स्यात् किंकर्तव्यमूढा न स्यात् ॥ ९ ॥ न भवेदपराधीनः पराधीनश्च मानवः । गुरुक्तवासनोऽपि स्यादगुरूक्ताधिवासनः ॥९॥ न भवेदित्यादि-मानवः समस्तोऽपि नरवर्गः स पराधीनः परतन्त्रापराधीनश्च पुनर्नभवेदिति विरोधे सति अपराधिनां पापाचारिणामिनः स्वामी तथैव पराधीनः परतन्त्रश्च न भवेदिति परिहारः। तथा गुरुभिः पूज्यपुरुषरुक्ते समुपविष्टे मार्गे वासना मनः परिणतिर्यस्य स सन्नपि न गुरूणामुक्तेऽधिवासना यस्य स इत्येवं विरोधे सति अगुरुणा नाम चन्दनेभाधिवासना यस्येति परिहारः ॥ ९१ ॥ अवर्णप्रथमस्यारादन्त्यजस्यानुभावुकः । कुलीनतामुपालम्ब्य सुखगत्वमधिष्ठितः ॥९२॥ अवर्णेत्यादि-वर्णेषु प्रथम आदिभवो वर्णप्रथमो ब्राह्मण इति स न भवतीत्यवर्णप्रथमस्तस्य प्रत्युतान्त्यजम्य वर्णाश्रमबहिर्भूतस्य चाण्डालादेरनुभावकः सन्नपि कुलीनतामुच्चकुलतामुपालम्ब्यापि तु कौ पृथिव्यां लीनतामुपालम्ब्य शोभनं खगत्व. माकाशगामित्वमधिष्ठित इति विरोधे पुनस्तावदवर्णोऽकार एव प्रथम आदिभूतो यस्य रहे । और नेतिनाक-न-निषेधरूप वचन कार्यक्रममें सेतिवाक इति सहित वचन हो, यह विरोध है, परिहार इस प्रकार है-वाक्-वाणी नेति-ईति-बाधासे रहित होकर सेतिवाक् कार्यकी पूर्णतासे सहित हो ।। ९० ॥ अर्थ-मनुष्य अपराधीन-स्वतन्त्र न होकर पराधीन-परतन्त्र हो, यह विरोध है। परिहार इस प्रकार है-मनुष्य अपराधियों-पापाचारियोंका इनस्वामी न हो, तथा पराधीन-परतन्त्र न हो। इसी प्रकार गुरूक्तवासन-गुरुके द्वारा उपदिष्ट मार्गमें मन लगाकर भी अगुरूक्त वासन-गुरुके उपदिष्ट मार्गमें मन लगाने वाला न हो, यह विरोध है, परिहार पक्षमें अगुरूक्ताधिवासनः--अगुरु चन्दनकी अधिवासनासे सहित हो, ऐसा अर्थ करना चाहिये ।। ९१ ॥ अर्थ-भावना है कि जो मनुष्य, अवर्णप्रथम-वर्गों में प्रथम, अर्थात् ब्राह्मण वर्ण नहीं है, प्रत्युत अन्त्यज-चाण्डालादिका अनुभव करने वाला है तथा कुलीनता-पृथिवीमें लीनताको प्राप्तकर भी सुखगत्व-उत्तम आकाशगामित्वको प्राप्त है, अर्थात् पृथिवीपर रेंगने वाला होकर भी अच्छी तरह आकाशमें चलता है, ये दोनों विराध हैं। इनका परिहार इस प्रकार है-अकार नामका वर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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