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जयोदय-महाकाव्यम्
[८९-९० अन्तरङ्गमिदं नान्तरं व्रजत् स्याच्छरीरिषु ।।
न नीरसंगतं नः स्यात् क्षेत्रं स्यान्नीरसंगतम् ॥८९॥ अन्तरङ्गमित्यादि-अन्तरमन्यरूपपरिणामं गच्छतीति तदन्तरङ्गमिदं चित्तं शरीरिषु देहधारिष्वेतेषु अन्तरङ्गं न भवतीति नान्तरं वजत् गच्छत् स्यादिति विरोधेऽन्तरङ्गमबहिर्भूतमित्यर्थस्तत् सर्वप्राणिषु नान्तरं व्रजत स्यात्, स्निह्यतामिति यावत् । नीरेण जलेन सङ्गतं समन्वितं न स्यावपि नीरसङ्गतं स्यादिति विरोधे पुनर्नः किलास्माकं तिमिङ्गितं नीरसं रसवजितं न स्यात्, किन्तु सर्वमपि क्षेत्रं धान्योत्पत्तिस्थानं तन्नोरेण सङ्गतं सम्यक्तया सम्भावितं स्यात्, सुवृष्टिर्जगति भूयादिति यावत् ॥८९॥
सुरभी राजतामत्रासुरभीश्च समन्ततः ।
वसुधा स्यान्नवसधा नेतिवाक सेतिवाक कृतौ ॥१०॥ सुरभीत्यादि-अत्र लोके समन्ततः सर्वत्रापि सुरभीश्च स्यावसुरभीश्वेति विरोधे सुरभिर्नाम गौः सा राजता सुशोभताम् । तथा चासुः प्राणवायुश्चाभी यजितो राजतां सर्वेषां प्राणाः सुचारवः सन्तु । वसुधेयं धरणी सा वसुधा न स्यादिति विरोषे नवा नित्यमेव नूतना सुधा श्वेतपरिणतिर्यस्यां सा स्यात् सर्वदैवानन्दोत्सवेन पूर्णा स्यादिति ।
विद्वेष करने में तत्पर रहँ, यह विरोध है। परिहार इस प्रकार है-मैं अहोनभूषितउच्च महानुभावों से सुशोभित होता हुआ, शेष-उनसे अतिरिक्त हीनाचारियोंसे विद्वेष करनेमें तत्पर रहूँ ।।८८||
अर्थ-अन्तरङ्ग-भीतरको ओर जाने वाला चित्त प्राणियोंके अन्तरं वजत्भीतरकी ओर जाने वाला न हो, यह विरोध है। परिहार पक्षमें मेरा यह अन्तरङ्ग-चित्त अन्य प्राणियों के विषयमें अन्तर-व्यवधान अथवा अन्य परिणतिको प्राप्त करने वाला न हो, अर्थात् समस्त प्राणियोंपर स्नेहयुक्त रहे । तथा हमारा खेत न नीरसंगतं-जलसे रहित होकर भी नीरसंगतं-जलसे सहित हो, यह विरोध है। परिहार पक्षमें हमारा गत-गमन-प्रवृत्ति या चेष्टित नीरसरसरहित न हो और हमारा खेत नीरसंगत-जलसे सहित हो ॥ ८९ ।।
अर्थ-इस लोकमें सर्वत्र सुरभी ( सुरभि ) सुगन्ध सुशोभित हो और असुरभि-सुगन्धका अभाव भी सुशोभित हो, यह विरोध है। इसका परिहार इस प्रकार है-सर्वत्र सुरभि नामक गाय सुशोभित हो और असुरभी-प्राण वायु भयरहित सुशोभित हो। वसुधा-पृथिवी नवसुधा-पृथ्वी न हो यह विरोध है, परिहार इस प्रकार है-वसुधा-पृथ्वी नवसुधा-नूतन चूनाके समान उज्ज्वल
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