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जयोदय-महाकाव्यम्
[८६-८७ नापि सेवितं संमानितं । किञ्च, भक्तामरनामकेन समयेन सिद्धान्तेन स्तोत्ररूपेण श्रीमन्मानतुङ्गाचार्यवयंनिर्मापितेन च सेवितं समावेशितं कः खलु कोविदां बुद्धिमतामग्रणोः प्रधानः स न पूजयेदपि तु सर्वः सर्वदापि पूजयेदेव। तथा कृत्वा स्वस्य परस्य चापदां विपत्ति जयेत् । किञ्च, श्रियां विकाशलक्षणानां गणभृन्ति समहभाजि कमलानि तेषां वलयं समुदायं सतां हितं भगवत्पूजादिसाधनत्वात् । तथा भक्तमोदनं तद्वदमलेन स्वच्छेन समयेन प्रभाताख्येन सेवितमङ्गीकृतं कः खलु विदां बुद्धिमतामिव भास्वतामग्रणीः कः सूर्यो न पूजयेत् स्वीकुर्यात् स्वस्य निजस्य किरणलक्षणं परस्य शरीरिणश्च व्यवसायलक्षणं तथा तादृक् पदं यस्यां तामिमां पदां पृथ्वी जयेत् स्वीकुर्यात् ? किमिति नेह ॥८५॥
सम्पदां सम्पदस्यापि विघ्नतो विघ्नसंग्रहम् । श्रीविनायकराजस्याप्यर्हतामहंतः स्थितिम् ॥८६॥ विभवी भविनामोशो निर्णयी नयवांस्तथा ।
सदारोऽपि नरो भूयादादराद् दरदूरगः ॥८७॥ सम्पदामित्यादि, विभवीत्यादि च-सम्पदा सम्पत्तीनां सम्पदस्य शोभनस्थान
'भक्तामर स्तोत्ररूप सिद्धान्तके द्वारा अपने आपमें समावेशित गणधर वलयको बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ कौन पुरुष नहीं पूजता और उसके द्वारा अपनी तथा अन्यकी आपत्तिको जीतता है-दूर करता है ? अर्थात् सभी पूजते हैं और सभी स्व-परकी आपत्तिको जीतते हैं।
अथवा-श्रीगणमद्वलय-विकास रूप श्री लक्ष्मीके गणभृत-समूहको धारण करनेवाले कमलोंके उस समूहको जो कि पूजा आदिका साधन होनेसे सत्पुरुषोंके लिये हित-मङ्गलरूप है और भक्तामरसमयेन-भक्त-भातके समान अमर ( अमल ) स्वच्छ-उज्ज्वल, समय-प्रातःकालके द्वारा सेवित हैं, विवग्रणीज्ञानियोंमें-प्रकाशकर्ताओंमें प्रधान कः-कौन कः-सूर्य स्वीकृत नहीं करता और उसके द्वारा स्वस्य-अपनी किरणों और परस्य-अन्य प्राणधारियोंके व्यवसाय रूप तथा पदां-तथाभूत पद-स्थानसे सहित पृथिवीको नहीं पूजता है-स्वीकृत नहीं करता है, अर्थात् प्रतिदिन उदित होने वाले सभी सूर्य करते हैं ॥८५॥ ___ अर्थ-जो सम्पदाओं-सम्पत्तियोंके सम्पदसमीचीन स्थान होकर विघ्नोंके संग्रह-समूहको नष्ट करनेवाला है तथा अरहन्त परमेष्ठियोंकी स्थिति सादृश्य
१. समस्त ऋद्धियोंका इलोकबद्ध स्पष्ट स्वरूप वीर सेवा मन्दिर ट्रष्ट, वाराणसीसे
प्रकाशित तथा सम्पादक द्वारा लिखित सज्ज्ञानचन्द्रिकासे जानना चाहिये ।
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