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६८-७० ] एकोनविंशः सर्गः
९१९ दोनामनुवादतः सम्पर्कादपि सद्ध्यो व्रतेभ्योऽच्युतेभ्य इति यथा रुद्रः प्रच्यतोऽभूदिति तथा ‘णमो चोदसपुठवीणं' ये चतुर्दशपूर्वज्ञानिनः श्रुतज्ञानेन परिपूर्णेन सम्भृतो भवन्तीति ॥ ६७ ॥
सम्प्रति मे तु णमो अलैंगमहाणिमित्तकुसलाणमङ्ग!। णमो विउव्वइड्ढिपत्ताणं ये व्रजन्ति वाञ्छितप्रमाणम् ॥६८॥ सम्प्रतीत्यादि-'णमो अटुंगमहाणिमित्तकुसलाणं' एतत्पदं निमित्त ज्ञानार्थ पठ्यते । 'णमो विउठवइढिपत्ताणं' इदं पदं वाञ्छितप्राप्त्यर्थमिति विक् ॥६८॥
णमो विज्जाहराणं चोच्चाटनादिहृतामिति ।
णमो चारणाणं चैव नष्टोद्दिष्टार्थसम्मितिः ॥६९।। णमो इत्यादि-मो विज्जाहराणमिति पदमुच्चाटनाविनिवारणार्थ तथा 'णमो चारणा' पदमेतद् नष्टस्योद्दिष्टस्यार्थस्य सम्मितिः प्रणष्टवस्तुनः परिज्ञानार्थम् ॥६९।।
णमो पण्णसमणाणं ये वशीकृतचेतसः ।
दुर्ग्रहप्रतिकृद्धयोऽपि णमो आगासगामिणं ॥७०॥ णमो पण्णेत्यादि-'णमो पण्णसमणाणं' पदमिदं वशीकरणाथं पठ्यते, यतस्ते वशी
भावार्थ-तपस्वी मुनिराजोंके श्रुतज्ञानावरण कर्मको विशिष्ट क्षयोपशम होता है । उससे प्रारम्भमें रोहिणी आदि लघु विद्याएं सिद्ध होती हैं । उनके चमत्कारसे रुद्र संयमसे भ्रष्ट हो जाते हैं, परन्तु जो संयमसे भ्रष्ट नहीं होते हैं, वे संपूर्ण विद्याओंके स्वामी बनते हैं। यहाँ सद्भपः शब्दसे ऐसे ही तपस्वी मुनियोंका ग्रहण किया गया है। इसी तरह चौदह पूर्वके पाठी मुनिराज होते हैं । ये पूर्ण श्रुतज्ञानसे सहित होते हैं। इन दोनों प्रकारके मुनियोंकी आराधनासे विशिष्ट श्रुतज्ञानकी प्राप्ति होती है । ६७ ॥ . अर्थ-अष्टाङ्ग महानिमित्तमें कुशल मुनियोंको मेरा नमस्कार हो । यह मन्त्र निमित्त ज्ञानकी प्राप्तिके लिये पढ़ा जाता है। विगूर्व ऋद्धिको प्राप्त महामुनियोंको नमस्कार हो। इस ऋद्धिके धारक मुनि इच्छित प्रमाण गमन करते हैं, अथवा वाञ्छित पदार्थ को प्राप्त करते हैं ॥ ६८ ॥ ___ अर्थ-'णमो विज्जाहराणम्' यह पद उच्चाटनका निवारण करनेवाला है और णमो चारणाणं यह पद नष्ट वस्तुका परिज्ञान करानेके लिये है ॥ ६९ ॥
अर्थ-णमो पण्णसमणाणं जिन्होंने अपने चित्तको वशीभूत किया है, ऐसे प्रज्ञाश्रमणोंको नमस्कार हो। यह पद वशीकरणके लिये पढ़ा जाता है। इससे
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