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अनजानेमें नहीं हो गया। श्रीहर्ष अपने इस काव्यवैशिष्ट्यसे भलीभाँति परिचित थे । उन्होंने इक्कीसवें सर्गके अन्तमें पुष्पिकाके रूपमें इसका साटोप उल्लेख किया है
'तस्यागादयमेकविंशगणनः काव्येऽतिनव्ये कृतौ' ।
श्रीहर्षके नैषधीयचरितमहाकाव्यकी 'अतिनव्यता'की व्याख्या स्वयं कवि ही करता है। वह कहता है कि यह ऐसा महाकाव्य है जिसकी उक्तियोंमें ऐसे शृङ्गार आदि रसोंके प्रमेयोंके गुम्फ हैं, जिनका अन्य कवि स्पर्श भी नहीं कर सके
'अन्याक्षुण्णरसप्रमेयभणितौ विंशस्तदीये...' । कवि नैषधीयमहाकाव्यमें अपूर्व अर्थकी सृष्टिकी बात भी कहता है'एकां न त्यजतो नवार्थघटनाम्' । श्रीहर्षने इसे छन्दःप्रशस्तिके सदृश बताया है। इससे नैषधीयचरितमें विविध छन्दोंकी योजनाका भाव निकलता है । कृशेतररसस्वादु (१५), शरदिजज्योत्स्नाच्छसूक्ति (१४), स्वादूत्लादभृत् (१३) इत्यादि विशेषणोंका प्रयोग नैषधीयचरितके लिए किया है।
पहिले बताया जा चुका है कि महाकवि भूरामलकी काव्य रचनाके पूर्व लगभग दो शताब्दियाँ काव्यप्रणयनसे शुन्यप्राय रहीं। संस्कृतकाव्यके ऐसे अपकर्षकालमें कविने संस्कृत जगत्को जयोदय महाकाव्यके रूपमें महनीय काव्योपहार समर्पित किया। महाकवि भूरामलजी पूर्वकाव्यातिशायिनी स्वकीय रचना के वैशिष्ट्यसे भलीभाँति परिचित थे। उन्होंने भी श्रीहर्षकी भाँति अपनी इस कृतिकी नव्यताका सर्गान्त पुष्पिकामें दो बार उद्घोष किया-प्रथम सर्गमें तो 'नानानव्यनिवेदनातिशयवान् सर्गोऽयमादिर्गतः' कहकर आरम्भ किया तथा श्रीहर्षकी भाँति ठीक इक्कीसवें सर्गमें 'काव्येऽतिनव्ये कृतौ के स्थानपर 'काव्येऽतिनव्येऽसकौ'से उपसंहार किया। श्रीहर्ष द्वारा कृत उपसंहार एक सर्गके पूर्व होनेसे चरितार्थ रहा क्योंकि नैषधीयचरितमहाकाव्य बाईस सर्गों में सम्पन्न हुआ है । जयोदयमहाकाव्यमें यह उपसंहार सत्ताईसवें सर्ग में करना चाहिए था क्योंकि यह महाकाव्य अट्ठाईस सर्गों में पर्यवसित हुआ है । सर्गोंकी दृष्टिसे नैषधमहाकाव्यातिशायिता इसमें विद्यमान है । तृतीय सर्गमें जयोदयमहाकाव्यकार ने इस महाकाव्यका एक नवीन विशेषण दिया है, जो नैषधीयचरितकी पुष्पिकामें नहीं है। वह है-'नव्यां पद्धतिमुद्धरत्' । महाकविका यह महाकाव्य किसी नवीन शैलोको प्रकट कर रहा है।
___ जयोदयमहाकाव्यमें नव्यताके पदे पदे दर्शन होते हैं। विशेषतः रसों, कल्पनाओं, अलंकारविन्यास, छन्दोयोजना एवं भाषाप्रयोगमें पूर्वापेक्षया नूतन
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