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५०-५१]
एकोनविंशः सर्गः ओंकार आदावशरीरिवर्ग उच्छिन्नदोषस्य पुननिसर्गः । ततो महद्भिः समवाप्तपूर्तिः स्तुतो बभूव प्रणवस्त्रिमूतिः ।।५०॥
ओंकार इत्यादि-ओंकारे नामपदे आदौ तावत्सर्वप्रथममत एवाशरीरिणां शरीरवजितानां सिद्धानां परमात्मनां निर्देशार्थं तदादिमस्याकारस्य परिग्रहः कृतः पुनस्तदनन्तरमुच्छिन्ना दोषा रागादयो यस्मात्स उच्छिन्नदोषः श्रीमवहत्परमदेवस्तस्य निर्देशाथं तदादेरुकारस्य निसर्गः कुतस्ततश्च पुनर्महद्भिराचार्यादिपरमेष्ठिभिमुनिनामधारिभिः स्वनाम्न आदिमेन मकारेण समवाप्ता पूतिर्यत्र स एव अकारश्चः, उकारश्च, मकारश्चेत्येवं त्रिभिमूतिनिर्माणविधिर्यस्य स त्रिमूर्तिः प्रणवो नाम मङ्गलशब्दः संस्तुतः स्तुतिपथं नीतस्तेन जयकुमारेणेति ॥५०॥ ह्रींकारकस्तत्वगुणप्रकारः रक्तो रकारो हरितो हकारः। इन्दुः सबिन्दुर्धवलश्च काल एवं तथापीत इतस्त्रिकालम् ॥५१॥ ह्रींकारक इत्यादि-ह्रींकार एव ह्रींकारक: स्वार्थे कः । स ह्रींकारकः तत्त्वं
आगे पञ्च नमस्कार मन्त्रके चिन्तनका प्रकार बतलाते हैं
अर्थ-'ओम्' यह पञ्चमेष्ठीका वाचक मङ्गलपद है, इसीको प्रणव कहते हैं । ओम्की सिद्धि-अशरीर-शरीररहित सिद्ध परमेष्ठीके आदि अक्षर अ, उच्छिन्नदोष-रागादि दोषोंसे रहित अरहंत परमेष्ठीके आदि अक्षर उ और मुनिनामधारी आचार्यादि परमेष्ठियोंके आदि अक्षर म इन तीन अक्षरोंके मेलसे होती है । इसीलिये इसे त्रिमूर्ति कहते हैं। राजा जयकुमारने इस ओंकारकी अच्छी तरह स्तुतिकी।
भावार्थ-अन्य ग्रन्थोंमें अशरीर सिद्ध परमेष्ठीके आदि अक्षर, अ अरहन्त परमेष्ठीके आदि अक्षर, अ आचार्य परमेष्ठीके आदि अक्षर आ, इन तीनों वर्गोंमें सवर्णदीर्घ करनेसे (अ + अ + आ = आ) आ रह गया। उसमें उपाध्याय परमेष्ठीके आदि अक्षर उ की गुणसन्धि करनेसे ओ हुआ । उसके अन्तमें मुनि परमेष्ठीका म लगा देनेसे ओम् सिद्ध होता है। इससे स्वार्थमें कार प्रत्यय लगा देनेसे ओंकार शब्द बनाया गया है। वैदिक संस्कृतिमें ब्रह्मा वाचक अ, विष्णु वाचक उ और महेश वाचक म-इन तीन वर्षोंसे ओम् शब्द सिद्ध किया गया है। ॐ यह बीजाक्षर भी पञ्चपरमेष्ठियोंका वाचक है । 'प्रकृष्टो नवः प्रणवः' इस व्युत्पत्तिके अनुसार ओंकार सबसे श्रेष्ठ स्तुति मानी जाती है, क्योंकि इसमें पाँचों परमेष्ठी गर्भित हो जाते हैं ॥५०॥ ___ अर्थ-ह्रींकार बीजाक्षर अरहन्त परमेष्ठीके गुणोंका वाचक माना गया
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