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________________ ९१० जयोदय-महाकाव्यम् [४८-४९ गणाधिपं च प्राप्य संस्तुत्य चतुर्णामङ्गानां सामदामदण्डभेदभिन्नानां तानं विस्तारो यस्या स्तां नीति लेभे लब्धवानिति ॥४७॥ प्राकारि भाले तिलकं च तेन जिनाङ्घ्रिपद्मोत्थितकेशरेण । योगोऽभवन्मङ्गलदीपकस्य सुधांशुनेवोदयिना प्रशस्यः ॥४८॥ प्राकारीत्यादि-तेन जयकुमारेण जिनानां भगवतामन्रो एव पदें ताभ्यामुत्यतेन च तेन केशरेण भाले स्वकीये ललाटे तिलकं शिरोभूषणं प्राकारि समुल्लेखितं तावदयं संयोगः सुधांशुना चन्द्र णोदयिनाभ्युदयशीलेन सह मङ्गलदीपकस्य योग इव प्रशस्यः प्रशंसनोयोऽभवत् । सुधांशुस्थाने भालं मङ्गलदोपकमत्र तिलकमिति जानीयात् पाठकः ॥४८॥ समस्तकर्तव्यशिरश्चरन्ती निसर्गतः कालकलां वजन्तीम् । शिखामिवैनां प्रबबन्ध तावत् स्वमस्तकस्था स महानुभावः ॥४९॥ समस्तेत्यादि-स महानुभावो जयकुमारः स्वस्य मस्तके शिरसि स्थिता स्वमस्तकस्यां शिखां चूडां प्रबबन्ध तावदेनामिव समस्तकर्तव्यानां शिरसि चरन्ती समस्तकर्तव्यशिरश्चरन्ती तथा निसर्गतः स्वभावत एव व्रजन्तों गच्छन्ती कालस्य कलां घटिकामपि प्रबबन्ध एतावत्समयमिदं कर्तव्यमेतावत्समयमिदमित्येवमादिरूपेण स कल्पयामासेति तथा । मूर्धरुहमुष्टिवासो बन्धमित्यादि समन्तभद्राचार्यसदक्तेः सद्भावात सन्ध्यावन्दनवेलायाः सदाचरणरूपत्वात् । इत्येवं परिकर्म कृत्वा पुनर्महामन्त्रचिन्तनमधस्तानिदिष्टरूपेण चकारेति ॥४९॥ प्राप्तकर-इनको स्तुतिकर साम, दाम दण्ड और भेद नामक चार अङ्गोंके विस्तारसे सहित नीतिको प्राप्त किया ॥४७|| - अर्थ तदनन्तर राजा जयकुमारने जिनेन्द्रदेवके चरणकमलोंसे प्राप्त केशरके द्वारा अपने ललाटपर तिलक किया । ललाटपर लगा हुआ तिलक ऐसा जान पड़ता था, मानों उदित होते हुए चन्द्रमाके साथ मङ्गलदीपका संयोग हुआ हो। भाव यह है कि चन्द्राकार गौरवर्ण ललाटपर लाल केशरका तिलक मङ्गलदोपकके समान सुशोभित हो रहा था ॥४८॥ अर्थ-उन महानुभाव जयकुमारने अपने मस्तकपर स्थित चोटीके समान स्वभावसे व्यतीत होनेवालो एवं समस्त कार्यों में अग्रसर समयकी घड़ीको 'यह कार्य इतने समय तक करना और यह कार्य इतने समय तक' इस प्रकारके नियमसे बाँध लिया। भावार्थ-सन्ध्यादि कार्य करनेके पहले चोटीमें गांठ लगा ली तथा करने योग्य कार्योंका समयविभाग निश्चित कर लिया ॥४९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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