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________________ ९०१ २९-३०] एकोनविंशः सर्गः अनेकधान्यार्थकृतप्रवृत्तिर्जडाशयस्योद्धततां समत्ति । हे शारदे ! शारदवत्तवायः समस्तु मेघस्य विनोशनाय ॥२९॥ ___ अनेकेत्यादि-हे शारदे ! सरस्वति ! तवायनमेवायो मार्गः शरवोऽसौ शारदस्तद्वत् अस्ति यः किलानेकधार, बहुप्रकारेणान्यस्यायं कृता प्रवृत्तिर्येन स त्वदायः, शरन्मार्गश्चानेकानि च यानि धान्यानि शालिप्रभृतीनि तेभ्यस्तदथं कृता प्रवृत्तिर्येनेति, यश्च जडाशयस्य मूर्खलोकाभिप्रायस्योद्धततामुदण्डपरिणति समत्ति भक्षयति निराकरोति, पक्षे जडाशयस्य तटाकादेरुद्धततामुलभावं समत्ति परिहरति, स त्वदायो हे सरस्वति ! भैऽघस्य पापस्य, पक्षे मेघस्य जलदस्य विनाशनाय परिहरणाय समस्तु तावत् ॥२९॥ त्वं कोविदानां हृदि दीपिकासि न को विदा नानुमतस्त्व दाशीः । नानुग्रहं ते भुवि विस्मरामि सस्नेहवतित्वमहं दधामि ॥३०॥ त्वमित्यादि-हे सरस्वति ! त्वं तावत् कोविदानां बुद्धिमतां हृदि चित्ते दीपिकासि समस्तवस्तुसार्थप्रकाशक: भवसि, तदाशीर्वादो यस्मै स त्वदाशीर्ना मनुष्यः स कः खलु विदा परिज्ञानेनानुमत: समर्थितो नास्ति, किन्तु सर्वोऽप्यस्ति । तस्मादहमिह भुवि पृथिव्यां तेऽनुग्रहं तव कृपापरिणाममनुसरणं च न विस्मरामि, किन्तु स्नेहेन प्रेम्णा सहितो वर्तते स सस्नेहवर्ती तस्य भावम्, पक्षे स्नेहेन तैलादिना सहिता या वतिर्दशा सस्नेहवतिस्तस्या भावमिति । एवं सरस्वतीस्तवनं विधायेदानी लक्ष्मी स्तोतुमारभते ॥३०॥ अर्थ-हे सरस्वति ! तुम्हारा यह मार्ग-कार्यकलाप शरद् ऋतुके समान है, क्योंकि जिस प्रकार शरद् ऋतु अनेकधान्यार्थकृतप्रवृत्ति-अनेक प्रकारके अनाजोंके उत्पन्न करने में प्रवृत्त रहती है, उसो प्रकार आपका मार्ग भी अनेकधा-अन्यअर्थकृतिप्रवृत्ति-अनेक प्रकारके अर्थ-अभिधेय, व्यङ्गय और ध्वन्य अथवा अनेक मनुष्योंके प्रयोजन सिद्ध करने में प्रवृत्त है और जिस प्रकार शरद् ऋतु जडाशयजलाशयोंकी उद्धतता-उद्वेलावस्थाको नष्ट करती है, उसी प्रकार आपका मार्ग भी जडाशयोद्धतता-मूर्ख मनुष्योंके अभिप्राय सम्बन्धी उद्दण्डताको नष्ट करती है। इस तरह जिस प्रकार शरद् ऋतु मेघ-जलदका नाश करनेके लिये है, उसी प्रकार आपका मार्ग भी मे अध-मेरे पापोंका नाश करनेके लिये हो ।।२९।। अर्थ-हे सरस्वति ! तुम विद्वानोंके हृदयमें दीपिकारूप हो, अर्थात् तुम्हारे ही आलोकमें उन्हें हेयोपादेय पदार्थोका परिज्ञान होता है । तुम्हारे आशीर्वादसे सहित ऐसा कौन मनुष्य है, जो ज्ञानसे अनुमत-समर्थित न हो, अर्थात् कोई नहीं है । पृथिवीपर मैं तुम्हारे उपकारको नहीं भूलता हूँ-कभी भी तुम्हारे उपकारको विस्मृत नहीं कर सकता । तुम्हारे विषयमें मैं स्नेहपूर्ण-प्रेमपूर्ण वृत्तिको' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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