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________________ ९०० जयोदय-महाकाव्यम् [२७-२८ तृतीयवाहावुपयुक्तदाम-सुमेषुमे विद्विधया स्वधाम । चारित्रबार्धेस्तरलास्तरङ्गानाख्यातुमेवानुकरोत्यभङ्गान् ॥२७॥ तृतीयबाहाविति-मे मम विदो बुद्धचा विधया प्रकारेण सा सरस्वती स्वस्य तृतीयबाहौ किलोपयुक्तं यद्दाम कुसुममाल्यं तस्य सुमेषु पुष्पेषु किल चारित्रवाश्चरणानुयोगो नाम समुद्रस्याभङ्गान्निरन्तरायान् तरलान् म प्रायांस्तरङ्गानाख्यातुं परिगणयितुमेव तावत् स्वस्य धाम तेजःप्रभावमनुकरोतीति । चरणानुयोगवणितस्याचारस्य प्रभावेण मनुष्यस्य कीर्तिः कुसुमगन्धवत् प्रसरति किलेति व्यञ्जना ॥२७॥ उत्सङ्गमध्यप्रहितकपाणिस्तत्त्वार्थसार्थानुभवे च वाणी। ध्यानकतानं मनसो विधानं कर्तुं सदैवादिशतीव सा नः ॥२८॥ उत्सङ्गत्यादि-उत्सङ्गस्याङ्कस्य मध्ये प्रहितः स्थापित एकः पाणिर्यया सा सरस्वती तत्त्वार्थानां जीवादीनां सार्थः समुदायस्तस्यानुभवेऽनुमनने मनसश्चित्तस्य विधानं प्रकारं ध्यानकतानं निश्चलं कतु मेव नोऽस्मादृशान् सदा सर्वदैवोपदिशतीव खलु । पदार्थानां स्वरूपं मनसा चिन्त्यते, तदथं च पद्मासनीभूयाङ्क करधारणमिति ध्यानमुद्रा ॥२८॥ हाथमें पुस्तक धारण करतो है ॥२६॥ अर्थ-सरस्वती अपनी तृतीय भुजामें जो उपयुक्त-उपयोगमें आनेवाली मालाको धारणकर रही थी, उसके फूलोंमें वह चरणानुयोगरूप समुद्रकी मनोहर तथा अभङ्ग-सन्ततिबद्ध तरङ्गों-चारित्रके विकल्पोंको गिननेके लिये अपनी बुद्धिके अनुरूप अपने तेजको ही धारण कर रही हो, ऐसा जान पड़ता है । भावार्थ -सरस्वतीके तृतीय हाथमें जो माला थी, वह फूलोंके बहाने चारित्रके विकल्पोंको ही मानों प्रकट कर रही थी।॥२७॥ अर्थ-जिसने गोदके मध्य में एक हाथ रखा है, ऐसी सरस्वती मानों हम सबको सदा यही आदेश देती है कि मनकी प्रवृत्तिको तत्त्वसमूहके चिन्तनमें ध्यानकतान-एकाग्र करो। __ भावार्थ-गोदमें स्थापित चतुर्थ हाथसे सरस्वती मानों यह उपदेश दे रही है कि अपने मनको सदा तत्त्वचिन्तनमें निमग्न करो। यहाँ चतुर्थ हाथकी मुद्रासे तत्त्वार्थका वर्णन करनेवाले द्रव्यानुयोगका वर्णन किया है। इस सन्दर्भमें यहाँ जिनवाणी रूपी सरस्वतीके चार अनुयोग रूप हाथों तथा उनके कार्यकलापका निदर्शन किया गया है। यह प्रशस्त कल्पना है ॥२८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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