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________________ ९०२ जयोदय- महाकाव्यम् सन्दधतों धर्मार्थकामामृतधाम बाहुचतुष्टयं रमां समाराधयितुं प्रवृत्तः प्रसूनतुल्येन धर्मार्थत्यादि - धर्मश्चार्थश्च कामश्चामृतधाम मोक्षश्चेति धर्मार्थकामामृतधामानि, तान्येव बाहवस्तेषां चतुष्टयं सन्दधतीं यां जनाः समाहुस्तां रमां नाम लक्ष्मीं समाराधयितु संस्तो प्रवृत्तोऽभूत् स जयकुमारो नाम राजा, यः प्रसूनतुल्येन प्रफुल्लितेन हृदा चित्तेनानुवृत्तो युक्त आसीदिति । लक्ष्मीः कमलासना चतुर्भुजवती चेति किलालङ्कारिकमूर्तिमर्ती लक्ष्मीमनुजानन्ति जनाः, किन्तु न जैनाम्नायविद इति केषाञ्चिदभिप्रायः । स न समीचीनो यत उपर्युक्त कारा लक्ष्म्या मूर्तिः सनातनी जैनानामपि सम्मतेवास्ति । सा किलाकृत्रिम - चैत्यालयेष्वपि भगवतो वामपार्श्वेऽभिवर्तमानेत्येवं श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तिभिरप्यभिहितं त्रैलोक्यसार शास्त्र । किञ्च तीर्थकरजननीभिरपि स्वप्नषोडश्यामीक्ष्यते लक्ष्मीरनादिपरम्परयेति निःशङ्कमस्माकं चेतस्तावत् ॥३१॥ [ ३१-३२ समाहुः । हृदानुवृत्तः ॥३१॥ वृद्धयै प्रभावेण सुबुद्धिदेन याङ्गीकृर्ताद्धः किल सिद्धिदे ! नः । न कामितास्थामिति कामितानु तव तु प्रसादाज्जगदेकमातुः ||३२|| वृद्धयामित्यादि हे नोऽस्माकं सिद्धिदे ! सफलतादायिनि ! तव जगताम कमातुः प्रसादात्कृपाकटाक्षवशात् जनस्य कामिता वाञ्छापि न कामितेति विरोधे, सा वाञ्छा कामित्यास्थां श्रद्धां पूर्ति वा नेता न सम्प्राप्ताभूत्, या त्वं किल सुबुद्धिदेन सन्मतिदायकेन धारण करता हूँ । अथवा यतश्च तुम दीपिकास्वरूप हो, अतः मैं उसकी तैल सहित बत्ती हूँ ||३०|| अर्थ - तदनन्तर पुष्पतुल्य- कोमल हृदयसे युक्त जयकुमार राजा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप चार भुजाओंको धारण करने वाली लक्ष्मीकी आराधना करनेके लिये उद्यत हुए । भावार्थ - लक्ष्मीकी मूर्ति लोककल्पित है । लक्ष्मी भवनवासिनी देवी है । वह परमार्थसे आराधनीय नहीं है । जिनागमके अनुसार तो अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यके भेद अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मी ही आराधनीय - पूजनीय है । यहाँ - कविने जो वर्णन किया है, वह लाकरीतिको लक्ष्यमें रखकर किया है ||३१|| Jain Education International अर्थ - हे हमारी सिद्धिको देनेवाली ! आप जगत् की अद्वितीय माता हैं, आपके प्रसाद से मनुष्यकी कामिता - वाञ्छा पूर्ण नहीं हुई यह विरुद्ध है, इसका परिहार ऐसा है कि आपके प्रसादसे मनुष्यकी कामिता वाञ्छा, काम्-किस आस्था-श्रद्धा अथवा पूर्तिको न इता - प्राप्त नहीं हुई, अर्थात् सब प्रकारकी श्रद्धा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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