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________________ २२-२३ ] एकोनविंशः सर्गः ८९७ सति नवो नवीनश्चर्द्धमानः समृद्धस्वभावश्च भवती ति परिहारः। इत्येवंरूपेण ते विधा प्रकारो नः खल्वस्माकं विस्मयकृद्भवत्याश्चर्यायास्तीति ॥२१॥ वृषध्वजायापि दिगम्बराय भवच्छिदे भूतहितंकराय । देवाधिदेवाय नमो जिनाय न किन्तु लब्धाजिनचर्मकाय ॥२२॥ वृषध्वजायेत्यादि-वृषो नाम बलोवर्दो ध्वजे यस्य स वृषध्वजो नाभेयस्तीर्थकरो महादेवोऽपि तस्मै। तथा दिश अम्बराणि भवन्ति यस्मै तस्मै। तथा भवं नाम संसारं छिनत्तीति तस्मै भवच्छिदे। तथा भूतानां प्राणिमात्राणां पक्षे पिशाचानां हितं करोतीति तस्मै । तथा देवानामिन्द्रादीनां देवायाराध्याय जिनाय तीर्थकरपरमदेवाय नमोऽस्तु, किन्तु पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टायैव लब्धं परिधारितमजिनं चर्मैवाजिनचर्मक येन, तस्मै लब्धाजिनचर्मकाय महादेवनामकाय नमस्कारो न भवतु खलु इति ॥२२॥ सरस्वति ! श्रीपतिदर्शनाय सुदक्षिणा त्वं गुणलक्षणाय । विज्ञैरविज्ञैरपि सेव्यमाना पुनीतपुण्टो कवरप्रदाना ।।२३।। सरस्वतीत्यादि-एवं श्रीवृषभदेवाराधनानन्तरं सरस्वती स्तोतुमारभते तावत् । हे सरस्वति ! त्वं श्रीपतेभंगवतो दर्शनाय, कीदृशाय ? गुणानां ज्ञानादीनां धर्माचारादीनां लक्षणं यत्र भवति खलु तस्मै । सुदक्षिणातिशयचतुरा यद्वा शोभना दक्षिणा नाम दिशा यया सा सुदक्षिणा, यतो मध्ये श्रीपतेर्भगवतोऽवस्थितिभूत्वा तस्य दक्षिणदिग्भागे सरस्वत्या वामभागे च लक्षम्याः परिस्थितिर्भवतीति किलाम्नायोऽस्ति । ततस्त्वं पुर्नाव निभिः श्रीवर्द्धमान होकर नव + अर्धमान-नित्य नवीन समृद्ध स्वभाव वाले हैं। इस तरह आपकी यह विधा-पद्धति हम सबको आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है ॥२१ । अर्थ-हे भगवन् ! आप वृषध्वज हैं-वृषभ चिह्न वाली ध्वजासे सहित हैं, (पक्षमें वृषभवाहन हैं), दिगम्बर-दिशा रूप वस्त्रोंसे सहित अर्थात् नग्नमुद्राके धारक हैं (पक्षमें नग्न हैं), भवच्छिद्-संसारका नाश करने वाले हैं (पक्षमें भव नामक असुरका संहार करने वाले हैं), भूतहितंकर-प्राणीमात्रका हित करने वाले हैं (पक्ष में पिशाचोंका हित करने वाले हैं और देवाधिदेव हैं-सब देवोंमें प्रभुत्व संपन्न देव है (पक्षमें देवोंके आराधनीय हैं)। इस प्रकार महादेवके साथ नामसादृश्य होनेपर भी मेरा जिनके लिये नमस्कार है, किन्तु जो अजिन-चर्मको धारण करने वाले हैं, उन महादेवको मेरा नमस्कार नहीं है ।।२२।। ___ अर्थ-अब भगवान् ऋषभदेवको स्तुतिके बाद सरस्वती-जिन वाणीकी स्तुति करते हैं। हे सरस्वति ! तुम श्रीपति-जिनेन्द्रदेवका वह दर्शन कराने वाली हो, जो कि सम्यग्ज्ञान तथा धर्माचरण आदि लक्षणोंसे महित है। तुम अतिशय चतुर अथवा उदार हो, ज्ञानी तथा अज्ञानी-सभी जनोंके द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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