SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयोदय- महाकाव्यम् ८९६ [२०-२१ प्रजा प्रजार्गात तवोदयेन निशा हि सा नाशमनायि येन । भानुः सदा नूतन एवं भासि कोकस्य हर्षोऽपि भवेद्विकाशी ॥ २० ॥ प्रजेत्यादि - माथ ! तवोदये प्रजा सम्पूर्णाऽपि जनता प्रजागत प्रतिबुद्धा भवति कर्तव्यपरायणा प्रभवति । किञ्च, निशा रात्रिरज्ञानान्धकाररूपा हीति निश्चयेन येन तवोदयेन नाशमनायि नीता । तथा चाकस्य पापस्य हर्षः कः किल विकाशि विकशितो भवति न कोऽपि भवति । यद्वा कोकस्य चक्रवाकस्य हर्षो विकाशी भवति । एवं त्वं सदा नूतनो नित्यनवीनो भानुर्भासि शोभसे । स सूर्यो रात्रावस्तं याति त्वं तु सर्वदेव वर्तस इति ॥ २०॥ विपद्धतिः सा तव पद्धतिर्या न मानवीर्या बहुमानवीर्या । श्रीवर्द्धमानोऽसि न वर्द्धमानः समस्ति ते विस्मयकृद्विधोनः ॥२१॥ विपद्धतिरित्यादि - हे नाथ ! या तव पद्धतिः पदवी सा विपद्धतिविकृता पद्धतिरिति विरोधे सति सा विपदामापत्तीनां हतिविनाशो यया भवतीत्येव परिहारः । तथा बहुमानं वीर्यं सामथ्यं यस्यां सा बहुमानवीर्यापि न मानं यस्यां वीर्यस्येति न मानवीर्येति विरोधे सति तवेर्यागतिर्बहुमानवीर्या सती मानवी न भवति मनुष्यसम्भवा नास्ति, किन्तु दिव्या भवतीति परिहारः । तथा त्वं श्रीवद्ध मानोऽपि सन् न वद्ध मानोऽसीति विरोधे तुङ्ग - उदार प्रकृति होनेके साथ हृदि कोमल - हृदय में कोमल हैं, परन्तु मेरु पर्वत हृदयमें कोमल न होकर अन्तः कठोर है ||१९|| अर्थ - हे भगवन् ! आप सदा नूतनतासे युक्त सूर्य ही हैं, क्योंकि आपके उदयसे प्रजा प्रतिबुद्ध होती है, (वर्तमान सूर्यके उदयसे प्रजा जागृत होती है) प्रतिबुद्ध - ज्ञानी अज्ञानरूपी रात्रि नष्ट हो जाती है (वर्तमान सूर्यके उदयसे मात्र तमोमयी रात्रि नष्ट होती है, अज्ञानमयी नहीं) और आपके उदयसे अक-पाप अथवा दुःखका कौन सा विकास रह जाता है, अर्थात् कोई भी नहीं (वर्तमान सूर्यके उदयसे पाप या दुःखका नाश नहीं होता) । तात्पर्य यह है कि आप नित्य नया रूप धारण करने वाले अद्वितीय सूर्य हैं ||२०|| अर्थ - हे भगवन् ! आपकी जो पद्धति - पदवी है, वह विपद्धति - विकृत पद्धति है ( परिहार पक्ष में विपद् - आपत्तियों का नाश करने वाली है) । बहुमानवीर्याअत्यधिक प्रमाण वाले वीर्य - सामर्थ्य से सहित होकर भी न बहुमानवीर्याअत्यधिक प्रमाण वाले वीर्यसे सहित नहीं है, ( परिहार पक्ष में आपकी जो ईयागति है, वह मानवी - मनुष्य सम्बन्धी नहीं है, अपितु देवो - दिव्य है) तथा आप श्रीवर्द्धमान - लक्ष्मीसे वर्धमान होकर भी श्रीवर्धमान नहीं है ( परिहारपक्ष में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy