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________________ ८९४ जयोदय-महाकाव्यम् [१७-१८ मत्सरतया सहिता सेयेव खलु भूत्वा समीचीना ये वर्णाः ककारादयो यत्र तानि वृत्तानिन्छन्दांसि यस्यां यद्वा सन्ति समीचीनाति वर्णानां ब्राह्मणादीनां वृत्तान्याचरणानि यत्र सा वागी भारती धरणीव शोभमाना नृपतेर्मुखं चुचुम्ब निम्नरीत्या स्तवनं कर्तुमुपचक्रमे जयकुमार इति ॥१६॥ हे नाभिजातासि किलाभिजातस्सुरीतिकर्तासि सुवर्णतातः । न संविधातस्तव संविधातः स्मरामि नाना जगदेकतात ॥१७॥ हे नाभिजातेत्यादि-कः स स्तव इत्येव वर्णयति किल । हे नाभिजात अकुलीनत्वमभिजातः कुलीन इत्येवं विरोधे सति हे नाभिराजस्य जात सुपुत्र ! नामैकदेशेन नामग्रहणाविरोधपरिहारः। सुवर्णस्य भावः सुवर्णता तस्याः तसिलन्तप्रयोगः । हेमभावतोऽपि सुरीतेः पित्तलस्य कर्तासीति विरोधे सुवर्णतातः शोभनरूपत्वात् यद्वोत्तमवंशसम्भूतत्वात् सुरीतेः शोभनायाः प्रथायाः कर्तासीति यावत् । तथा हे संविधातः । सम्यग्विधा नकारक ! किञ्च हे न संविधात इति विरोषे सति हे सम्यग्विधानकारक । अत एव तव संविधा समीचीनोपमास्ति किलेति परिहारः । तथा हे जगतामेकतात ! अद्वितीयगुरो! तव नाना स्मरामि बहुप्रकारां स्तुति करोमि किल। विरोधाभासो. ऽङ्कारः॥१०॥ तवर्षभस्यापि नरोत्तमस्य मरुप्रभूतेः स्विदपांशुलस्य । सतोऽमलानां हरितोहितस्य यजेऽङ्घ्रिपद्मद्वितयं जिनस्य ॥१८॥ वाणी-सरस्वतीने ईष्याभावसे ही मानों राजाके मुखका चुम्बनकर लिया, अर्थात् राजाने अपने मुखसे प्रशस्त वर्ण और छन्दों वाली स्तुतिका पढ़ना प्रारम्भ किया ॥१६॥ ___अर्थ हे भगवन् ! आप न अभिजात-अकुलीन होकर भी अभिजात-कुलीन हो। यह विरोध है, परन्तु हे नाभिजात ! आप नाभि राजाके पुत्र हो तथा अभिजात-कुलीन हो, ऐसा अर्थ करनेसे विरोधका परिहार हो जाता है । आप सुवर्णतात-सुवर्णपनेसे युक्त होकर भी सुरीति-पीतलके कर्ता है, यह विरोध है, परन्तु हे भगवन् ! आप सुन्दर वर्ण रूप अथवा वंशके सद्भावसे सहित होनेके कारण सुरीति-अच्छी प्रथाके कर्ता हैं। तथा हे संविधातः! अच्छी विधिके कर्ता होकर भी न संविधातः ! अच्छी विधिके करने वाले नहीं है, यह विरोध है, परन्तु हे संविधातः ! अच्छी विधिके कर्ता होकर भी आपकी संविधा-उपमा नहीं है। तथा हे जगदेकतात! जगत्के अद्वितीय गुरु होकर भी आप नानाअनेक रूप हैं, यह विरोध है, परन्तु नाना-अनेक प्रकारसे मैं आपका स्मरण करता हूँ-ध्यान करता हूँ, ऐसा अर्थ करनेसे विरोधका परिहार हो जाता है ।।१७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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